– उचित शर्मा
देश के बजट वाले दिन जिस प्रकार की प्रतिक्रिया शेयर बाजार ने बजट पर दी है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उद्योग जगत और निवेश जगत में बजट को देखकर हड़कंप मच गया है। बजट के बाद मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक सेंसेक्स करीब एक प्रतिशत यानि करीब 395 प्वाइंट गिरकर बंद हुआ । यानि उद्योग जगत ने एक अर्थ में इस बजट पर अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। इसकी ठोस वजह उद्योग जगत की यह उम्मीद थी कि आम आदमी की जेब में कर राहत के जरिए कुछ रकम छोड़ी जाएगी, जिसका इस्तेमाल बाइक, मोबाइल से लेकर तमाम चीजों की खरीद में किया जाएगा। इस खरीद से तमाम कंपनियों के आइटमों की मांग में मजबूती आती। मांग निकलने से उद्योग जगत की स्थिति बेहतर होती। पर बजट ने ऐसा कुछ नहीं किया। बजट ने आय कर ढांचे में ऐसे बदलाव नहीं किए, जिनसे अधिकांश करदाताओं की जेब में कुछ रकम बच पाती। आयकर ढांचे में कोई बदलाव नहीं है, सिवाय इसके कि दो करोड़ से पांच करोड़ की आय वालों का कर दायित्व 3 प्रतिशत बढ़ गया और 5 करोड़ रुपये से ऊपर की आय वालों का कर दायित्व 7 प्रतिशत बढ़ गया। अलबत्ता, सुखद सूचना यह है कि 2019-20 के बजट में सकल घरेलू उत्पाद के 3.3 प्रतिशत राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा गया है। गौरतलब है कि 2018-19 में यह राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 3.4 प्रतिशत था। बजट दस्तावेजों में यह मंशा जताई गई है कि आगामी वित्तीय वर्षो यानी 2020-21 और 2021-22 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत ही रहेगा यानी तीन प्रतिशत की सीमा पार न होगी। बेशक, यह बहुत अच्छी खबर है। राजकोषीय अनुशासन का पालन न सिर्फ इस बजट में किया गया है, बल्कि भविष्य में बजटों में भी अनुशासन रहेगा, ऐसी मंशा जता दी गई है। यदि राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के बतौर सीमा में रहे तो उस देश की ग्लोबल रेटिंग सही रहती है। ग्लोबल अर्थव्यवस्था में अपनी चमक बनाए रखने के लिए जरूरी है कि राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण रखा जाए। सकल घरेलू उत्पाद का राजकोषीय घाटा से रिश्ता बहुत संवेदनशील रिश्ता होता है। अगर यह लगातार बढ़ता है तो भारत की रेटिंग ग्लोबल बाजार में कम होती है। और रेटिंग कम होने से देश में विदेशी निवेश में कमी आती है। विदेशी निवेश कहीं न कहीं भारत में गुणवत्ता वाला रोजगार लेकर आता है, जिसकी आज की तारीख में भारत में सख्त कमी है। इस बजट ने अलग तरीके से नकदबंदी का प्रयास किया है। तमाम काले सौदों, काली अर्थव्यवस्था के सौदों में नकद की प्रमुख भूमिका होती है। बजट मेें घोषणा की गई है कि अगर कोई बैंक से एक साल में एक करोड़ से अधिक की राशि निकालता है, तो उस पर 2% का कर लगाया जाएगा यानी सालाना एक करोड़ रुपये से अधिक निकालने पर दो लाख रुपये टैक्स में ही कट जाएंगे। आम तौर पर आदमी को साल में एक करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम बैंक से निकालने की जरूरत नहीं पड़ती। तो इस कदम को पारदर्शिता की दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है। गोल्ड और अन्य बहुमूल्य धातुओं पर कस्टम ड्यूटी को 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12.5 प्रतिशत कर दिया गया। यह बिल्कुल सही कदम कहा जाएगा। इससे सरकार के संसाधनों में ईजाफा होगा और सोने की खरीद करने वालों को अर्थव्यवस्था का एकदम विपन्न तबका नहीं माना जा सकता। विनिवेश यानी सरकारी कंपनियों में सरकार अपना शेयर बेचकर एक लाख 5000 करोड़ रुपये वसूलेगी, ऐसा बजट अनुमान है। यहां सरकार ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हो सकती है। एक लंबी सूची है नीति आयोग के पास उन सरकारी कंपनियों की जहां शेयरों की बिक्री अच्छी खासी रकम दे सकती है। संसाधनों की कमी यहां से पूरी की जा सकती थी और करदाताओं की जेब में कुछ रकम छोड़कर तमाम आइटमों की मांग को मजबूती दी जा सकती थी। सरकार को यहां ज्यादा मजबूत इच्छा शक्ति दिखानी चाहिए थी। सफेद हाथी हो चुके सरकारी उपक्रमों में जनता से वसूला गया पैसा लगाना एक तरह से संसाधनों का अपव्यय है। बजट भाषण में केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा है कि एयर इंडिया के विनिवेश की कोशिश की जाएगी। तो यह कोशिश अब कामयाब ही होनी चाहिए। एयर इंडिया पर करदाताओं का पैसा लगातार लगाए जाने का कोई मतलब नहीं है। उस पैसे से सिंचाई परियोजनाएं चलाई जा सकती हैं। नये स्कूल खोले जा सकते हैं। अस्पताल खोले जा सकते हैं। कुल मिलाकर बहुत से ऐसे सार्थक काम किए जा सकते हैं, जिनसे आम जन के जीवन की गुणवत्ता में सुधार आए। बजट मेें घोषणा की गई है कि सरकार सरकारी बैंकों में 70,000 करोड़ रुपए की पूंजी डालेगी। सरकारी बैंकों में पूंजी डालना निश्चय ही स्वागत योग्य है पर यह देख लिया जाना चाहिए कि कौन बैंक अब लाइलाज हो गए हैं। बदलती वित्तीय दुनिया में बहुत पुराने रंग-ढंग के सरकारी बैंक अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। या तो उनमें आमूल चूल बदलाव किया जाए, या उनका विलय किसी दूसरे ठीक-ठाक चलते बैंक में किया जाए। तमाम सरकारी बैंकों को अब मौजूदा स्वरूप में नहीं चलाया जा सकता यानि कुल मिलाकर मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ फैसले किए जाने की दरकार है।