कफन
छत्तीसगढ़ की 82 वर्षीय कृष्णा देवी को "कफन" ने दिलाई अलग पहचान

बिलासपुर। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक 82 साल की बुजुर्ग महिला ने लावारिश लाशों को कफन देकर समाज में मिसाल कायम की है. सिम्स हॉस्पिटल परिसर में रहने वाली बुजुर्ग महिला ने “कफन” की वजह से अलग पहचान बनाई है. बुजुर्ग महिला ने सैकड़ों लावारिश लाशों को कफन देकर शव की लाज रखी है.

अस्पताल और पुलिस वाले भी मदद के लिए करते संपर्क

बिलासपुर की इस बुजुर्ग महिला का नाम कृष्णा देवी यादव है। हैरत की बात तो यह है कि जिले के सबसे बड़े सिम्स अस्पताल और पुलिस वाले भी किसी लावारिस की मौत पर बुजुर्ग से संपर्क करते हैं और लावारिस लाश को कफ़न देकर पूरे रीति-रिवाज से विदाई देते हैं।

कभी नहीं पूछा- मरने वाला या वाली किस जाति या धर्म से

समाज में इंसानियत की मिसाल कायम करने वाली कृष्णा देवी ने कभी नहीं पूछा कि मरने वाला या वाली किस जाति या धर्म से है। उन्होंने कभी इस बात की भी परवाह नहीं है कि लोग उसके बारे में आखिर क्या सोचते हैं।उन्हें तो बस इस बात की परवाह रहती है कि अंतिम यात्रा में जाने वाले के सम्मान के खिलाफ किसी प्रकार की भूल से भी गुस्ताखी ना हो जाए।

कृष्णा देवी यादव का घर सिम्स अस्पताल के परिसर के मर्च्युरी से चंद कदम दूर में है। कृष्णा देवी पिछले तीस साल से बिना थके लवारिश लाशों को अपने घर से विधि विधान के साथ अंतिम यात्रा पर विदा करती हैं। जब भी सिम्स से किसी महिला, पुरूष, युवक, युवती, बच्ची या बच्चों की लाश निकलती है। तो वह सबसे पहले कृष्णा मां के घर के सामने पहुंचती है।

कफन देकर करती हैं अंतिम यात्रा के लिए विदा

कृष्णा देवी विधि विधान से यथोचित संस्कार के बाद कफन देकर लाश को अंतिम यात्रा के लिए विदा करती है। वहीं सिम्स कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी समझ लाश को श्मशान घाट पहुंचाने से पहले कृष्णा दाई के घर के सामने उतारते हैं। कभी-कभी तो एक दिन में लाशों की संख्या और विदाई कार्यक्रम की दो तीन रस्में भी हो जाती है। बावजूद इसके कृष्णा देवी भावुक मन से अपने दायित्वों का निर्वहन कर शव को अंतिम यात्रा के लिए विदा करती हैं।

पहले लोग करते थे रोक-टोक

इस संबंध में 82 साल की कृष्णा यादव ने बताया कि पहले लोग ऐसा करने से रोकते और टोकते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग मेरी आदतों से और मैं उनके रोक-टोक की आदी हो गई। अब तो लोग उनका समर्थन भी करने लगे हैं। लेकिन उनका कहना है कि ऐसा करना मुझे अच्छा लगता है। पहले लोग कहते थे कि शव को घर के सामने रखना अशुभ है। लेकिन मुझ पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ा।

मैं पिछले तीस साल से लवारिश लाशों की विधि विधान से अंतिम विदाई में ऐसा व्यस्त हुई कि अब कुछ सुनाई ही नहीं देता है। इस परम्परा की शुरुआत मैंने अपने पति स्व. मंगीलाल यादव के साथ की थी, जिनका निधन 10 साल पहले हुआ है। आलम तो ये है कि सिम्स के कर्मचारी घर के सामने लावारिश लाश लेकर आते हैं। वहीं पूजा-पाठ कफन देने के बाद अंतिम यात्रा को विदा करती हूं। ऐसा करने से मन खुश होता है।

अंतिम यात्रा पर निकला व्यक्ति लवारिस नहीं

कृष्णा मां का मानना है कि मरने वाले या वाली का कोई माता-पिता तो जरूर होगा। यदि नहीं होता तो वह इस दुनिया को कैसे देखता। इसलिए अंतिम यात्रा की व्यवस्था कर मैं ऊपर वाले को बताना चाहती हूं कि अंतिम यात्रा पर निकला व्यक्ति लवारिस नहीं है।

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