संदीप शर्मा
स्वतंत्र लेखक,छत्तीसगढ़

2013 के बाद राजनीतिक दलों में एक परिवर्तन देखने को मिला है कि,सभी सालभर चुनावी मोड में रहते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद अब तमाम दलों की निगाह इस वर्ष के अंत तक होने वाले बिहार चुनाव पर टिकी है। केंद्र में सत्ताधारी दल को दिल्ली के परिणाम ने विचलित कर दिया है, जहां पूरे शक्ति प्रदर्शन के बाद भी पार्टी का प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा है।

 

प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने तो केजरीवाल के सामने लगभग हथियार डाल रखे थे। पर, बिहार की तस्वीर अलग है जहां नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता हैं पर उनसे सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौतें और बाढ़ के समय कुप्रबंधन ने कम से कम सुशासन बाबू का तमगा छीन लिया। साथ ही एनआरसी और सीएए जैसे मुद्दों पर अस्पष्टता ने भी राजनीतिक छवि को नुकसान करने का काम किया है। नीतीश कुमार बेरोजगारों व महिलाओं को ब्याज मुक्त ऋण देकर स्वरोजगार के लिए योजना लाकर और बिजली की उपलब्धता पर कदम उठाकर अपना जनाधार सुरक्षित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। सहयोगी पार्टी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष एक शिक्षित और परिवक्त नेता हैं परन्तु डॉ.संजय जायसवाल न ही लोकप्रिय नेता हैं, ना ही संगठन कार्यकर्ता के रूप में पर्याप्त अनुभवी।

मंत्रिमंडल में सबसे बड़ा चेहरा सुशील मोदी चर्चित जरूर हैं पर राज्य में पूर्ण रूप लोकप्रिय नहीं, गिरीराज सिंह को बहुसंख्यक वर्ग का एक बड़ा धड़ा पसंद तो करता है पर उनमें चुनाव में सत्ता दिलाने का सामार्थ नहीं है। राधामोहन सिंह जैसे नेता हॉसिए पर हैं, ऊर्जा मंत्री आरके सिंह अपने प्रशासनिक क्षमता के​ लिए सराहनीय परन्तु राजनीतिक के तौर पर प्रभावी नहीं हैं। रा​मविलास पासवान की पार्टी का जनाधार सीमित क्षेत्र में ही है। विपक्षी दलों के सामने चेहरा और एकता एक बड़ी चुनौती है। महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाने में सक्षम लालू यादव जेल में बंद हैं, उनकी राजनीतिक सत्ता सत्ता संभाल रहे उनके पुत्र तेजस्वी जहां अक्सर चूक जाते हैं वहीं तेजप्रताप पूर्ण रूप से राजनीतिक परिपक्व नहीं हैं।

कांग्रेस के पास बिहार में एक भी ऐसा चेहरा नहीं जो राज्य में पूर्ण स्वीकार हो। कन्हैया कुमार का निरंतर दौरा व जनसंपर्क अवश्य सत्ता विरोधी लहर उत्पन्न करने का कार्य करेगा। नाराज होकर जदयू से बाहर हुए बहुचर्चित योजनाकार प्रशांतकिशोर भी नीतीश सरकार की वापसी में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। दिल्ली की जीत से आम आदमी पार्टी यदि प्रशांत किशोर को अपने पाले में कर लेती है या कन्हैया कुमार जैसे युवा नेता आप पार्टी खड़े हों तो एक अलग राजनीतिक परस्थितियां भी पैदा हो सकती है। निसंदेह आप प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार कुछ मुददों में समान विचार रखते हैं। आप पार्टी भी एक सशक्त राष्ट्रीय पार्टी होने का सपना पाले हुए है और देखना है कि इस सपने को यथार्थ में बदलने का उनका प्रयास क्या होगा। वहीं जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुश्वाहा भले ही पूर्ण रूप से जनाधार वाले नेता नहीं हैं पर उनके निश्चित वोट बैंक नीतीश कुमार की वापसी में रोड़ा बन सकते हैं।

जो भी हो अभी से किसी प्रकार की भविष्यवाणी या परिणाम का आंकलन करना जल्दीबाजी होगी पर, बिहार का चुनाव राजनीतिक दलों के लिए लिटमस टेस्ट से कम नहीं। क्योंकि, इसका व्यापक असर न उत्तरप्रदेश के चुनाव में देखने को मिलेगा बल्कि देश की राजनीति की दिशा और दशा भी तय करेगा। देखा जाए तो किसी के लिए बिहार की सत्ता की डगर आसान नहीं है।

Chhattisgarh से जुड़ी Hindi News के अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें 

Facebook पर Like करें, Twitter पर Follow करें  और Youtube  पर हमें subscribe करें।