उचित शर्मा

देश के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारों को अलग अलग अधिसूचित किया गया है। हालांकि केंद्र शासित राज्यों के लिए लागू अधिकारों के दायरे में केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यों के उपराज्यपालों को कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं। जिन पर संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कोई विवाद नहीं हैं, लेकिन लोकतंत्र में अगर केंद्र और राज्य में अलग अलग पार्टी की सरकारें सत्ता में हों तो अक्सर राज्य सरकार बनाम एलजी का ये मुददा राजनीति की लड़ाई का अहम बिंदू साबित होता है।

ताजा मामला केंद्र शासित राज्य दिल्ली को लेकर उठ रहा है जहां संसद में एक बिल के जरिए राज्य सरकार से ठकराव रोकने के लिए एलजी के अधिकारों को बढ़ाए जाने की बात कही गई है। लेकिन इसके पीछे केंद्र सरकार की मंशा को नजर अंदाज नहीं किया सकता है।

मौजूद हालात में दिल्ली के उपराज्यपाल को और ज्यादा अधिकार देने वाले बिल को मोदी कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। ये भी कहा गया है कि ये गवर्नेंस LG और दिल्ली सरकार के बीच टकराव को कम करने के लिए किया जा रहा है। नए बिल में गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी दिल्ली ऐक्ट (Government of NCT Delhi Act) में कुछ संशोधन कर दिल्ली की निर्वाचित सरकार को तय समय में ही LG के पास विधायी और प्रशासनिक प्रस्ताव भेजने का प्रावधान भी है। इस बिल को चालू सत्र में पारित कराने के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

इनमें उन विषयों का भी उल्लेख है, जो विधानसभा के दायरे से बाहर आते हैं। मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि संशोधन गवर्नेंस को बेहतर करने और LG और दिल्ली सरकार के बीच टकराव कम करने के लिए किए जा रहे हैं। यह भी कहा गया है कि अधिकारों के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जनवरी 2019 के फैसले के बाद स्थिति स्पष्ट करने की आवश्यकता हुई है।

नए संशोधन के मुताबिक, अब विधायी प्रस्ताव LG के पास कम से कम 15 दिन पहले और प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले पहुंचाने होंगे। यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते दिल्ली के उपराज्यपाल को कई अधिकार मिले हुए हैं। इसी अधिकार को लेकर केजरीवाल सरकार कई बार विरोध जता चुकी है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था, बाद में कोर्ट ने सरकार और उपराज्यपाल के अधिकार तय किए थे, लेकिन अभी भी गाहे-बगाहे उपराज्यपाल और सरकार आमने-सामने आते रहते हैं।

मोदी कैबिनेट के इस फैसले पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सवाल उठाते हुए कहा है कि दिल्ली के लोगों द्वारा नकारे जाने पर (विधानसभा में 8 सीट, MCD उपचुनाव में 0) बीजेपी अब लोकसभा में बिल लाकर दिल्ली की चुनी हुई सरकार की शक्तियां कम करने की कोशिश में है। यह बिल संविधान पीठ के फैसले के विपरीत है। हम बीजेपी के इस असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक कदम की निंदा करते हैं।

अरविंद केजरीवाल ने सोशल मीडिया पर एक और ट्वीट किया, उन्होंने लिखा कि ये बिल कहता है…दिल्ली में ‘सरकार’ का मतलब LG होगा. तो चुनी हुई सरकार क्या करेगी? सभी फाइल्स LG के पास जाएंगी। ये सुप्रीम कोर्ट के 4 जुलाई 2018 के खिलाफ है, जिसमें कहा गया था कि फाइल्स LG को नहीं भेजी जाएंगी। चुनी हुई सरकार सभी फैसले लेगी और LG को फैसले की कॉपी ही भेजी जाएगी।

इस मामले में सबसे ज्यादा मुखर रहे दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि जब सारे फैसले एलजी ही लेंगे तो दिल्ली की जनता की चुनी हुई सरकार क्या करेगी। कैबिनेट का फैसला सुप्रीम कोर्ट के ​फैसले के खिलाफ है। सिसोदिया का कहना है कि अगर एलजी ही सरकार चलाएंगे तो दिल्ली में चुनाव की जरूरत ही क्यों है?

ऐसे में एलजी के अधिकार बढ़ाए जाने के कैबिनेट के फैसले पर सवाल उठाया जाना गलत को कतई नहीं ठहराया जा सकता।गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी दिल्ली ऐक्ट की जरूरत कहीं न कहीं केंद्र सरकार की नीयत में खोट को ही उजागर करता है।

राजनीति के नजरिए से देखे तो उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कहते हैं कि दिल्ली के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा के अलावा गुजरात जैसे राज्यों में जनता के बीच दिल्ली की केजरीवाल सरकार के विकास माडल की चर्चा हो रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की लेाक​प्रियता से डरे हुए हैं, इसलिए दिल्ली सरकार के विकास माडल में रूकावट डालने एलजी के अधिकार बढ़ाए जाने की आड़ में नया संशोधन बिल लाया जा रहा है।

फिलहाल ये तो तय है कि गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी दिल्ली ऐक्ट की आड़ में दिल्ली की चुनी हुई केजरीवाल सरकार के अधिकारों में कटौती करने की केंद्र की मंशा कहीं ना कहीं राजनीति से प्रेरित है। लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गई विधायिका सर्वोपरी है उस पर उपराज्यपाल को हथियार बना कर राजनीति करने की कोशिश भारत जैसे लोकतंत्र के लिए सुखद संदेश नहीं है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार केंद्र के इस फैसले के खिलाफ सड़क से संसद और न्यायापालिका तक की लड़ाई के लिए तैयार बैठी है। अब आने वाला वक्त ही तय करेगा कि देश में लोकतंत्र जीतता है या फिर सत्ता में काबिज राजनीतिक दलों के हथकंड़े। फैसला जो भी हो लेकिन, यह देश में लोकतंत्र की दिशा तय करने वाला साबित होगा।

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