उचित शर्मा

यूं तो जम्हूरियत और जर्नलिज्म के गहरे त-आल्लुकात रहे हैं। एक जमाना था जब खबरनवीस अपनी साफगोई के लिए जाने जाते थे। मुद्दे उठाने की धुन में कब मुद्दई बन जाते थे पता ही नहीं चल पाता था। अपनी धुन के पक्के इन कलमवीरों ने सच का साथ कभी नहीं छोड़ा।

हमेशा निष्पक्षता को तरजीह दी। पिछले कुछ सालों से देखने में आ रहा है कि ज्यादातर राष्टÑीय चैनल्स के एंकर सत्तापक्ष के डिजिटल कार्यकर्ता की तरह काम करने लगे हैं। मीडिया पर सरकार के पांच साल के काम-काज का हिसाब लेने और उसे आम जनता तक पहुंचाने का दायित्व है। वह विपक्ष से उसके पुराने कार्यकालों का हिसाब मांगता है।

कुछ टीवी चैनलों का रवैया तो सत्तापक्ष के सैनिकनुमा हो गया है, उसके एंकर तो सत्तापक्ष के सैनिक जैसा बर्ताव करते हैं। विपक्षी दलों के नेताओं को सरेआम जलील करते हैं। ये शिकायत हमेशा से विपक्ष की रही है।

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इसी वजह से एक महीने तक के लिए टीवी चैनलों पर अपने प्रवक्ताओं को न भेजने का फैसला किया है। “देश में चाहे जो मुद्दे हों, संगठित अपराध, भ्रष्टाचार, राजनीतिक खरीद-फरोख्त, हत्या, बलात्कार, डकैती और जहरीली शराब से मौतें हो रही हों, लेकिन टीवी चैनलों पर शाम की बहस का मुद्दा कांग्रेस पार्टी की हार, मोदीजी की प्रचंड जीत और राहुल गांधी की भूमिका जैसे विषयों पर ही केंद्रित रहेगा। इसका एक दूसरा पक्ष भी है।

पिछले कुछ सालों से टीवी चैनलों की बहसों में जिस तरह से कुछ एंकर कथित तौर पर सरकारी पक्ष जैसा व्यवहार करते हुए विपक्षी दलों पर सवालों की झड़ी लगाते हुए टूट पड़ते हैं’, विपक्षी दलों ने उसी प्रतिरोध को स्वर देने के लिए भी ये कदम उठाया है। टीवी चैनलों पर बहस अकसर गर्मागर्म तो होती ही है, गाली-गलौज और हाथापाई तक भी हो चुकी है।

इन सब कारणों से न सिर्फ इन बहसों का औचित्य खत्म हुआ है, बल्कि मीडिया की निष्पक्षता पर सबसे ज्यादा सवाल भी इन्हीं बहसों की वजह से उठे हैं। ऐसी घटनाओं की चर्चा न सिर्फ मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया पर हुई, बल्कि इन्हें लेकर मीडिया के बारे में बनने वाली आमजन की राय ने पूरी मीडिया की विश्वसनीयता और उसके दायित्व पर सवालिया निशान लगाया है।

नेशनल ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ टीवी पत्रकार रहे एनके सिंह ने अपने सोशल अकाउंट पर इस तरह की बहसों की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा था, “वैसे तो देश की हर औपचारिक या अनौपचारिक, संवैधानिक या सामाजिक, धार्मिक या वैयक्तिक संस्थाओं पर जन-विश्वास घटा है लेकिन जितना अविश्वास मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों को लेकर है, वह शायद पिछले तमाम दशकों में कभी नहीं रहा। हाल के कुछ वर्षों में जितना ही देश का मानस दो पक्षों में बंटा है, उतना हीं यह अविश्वास जनाक्रोश में बदलता जा रहा है।

इधर राजनीतिक दलों के इस फैसले की उन टीवी चैनलों के चर्चित एंकरों ने ट्विटर और फेसबुक पर काफी आलोचना भी की । इसे सच्चाई से दूर भागने’ जैसी टिप्पणियों से भी नवाजा है लेकिन सच्चाई यही है कि यदि विपक्षी दलों के इस फैसले को एक तरह से मीडिया का बॉयकॉट’ कहें, तो ये निश्चित तौर पर चिंता वाली बात है, मगर सवाल तो ये है कि आखिर कहां हैं वे लोग जो मीडिया की निष्पक्षता की हिमायत करते हैं? वे लोग सामने क्यों नहीं आते? किसी को बतौर गेस्ट बुलाकर उसके साथ इस आन द स्क्रीन इस तरह बिहेव करना क्या अतिथि देवो भव की संस्कृति को मुंह नहीं चिढ़ाता है?

 

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