प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने 5 साल सत्ता का सुख भोगा, मगर इसके बाद हुए आम चुनाव में जनता ने पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। ऐसा क्यों किया गया इसकी वजह सभी जानते हैं, मगर पिछली बार प्रदेश के सभी नगरीय निकायों में कांग्रेस पार्टी का महापौर होने के बावजूद इस बार पार्टी को सभी सीटें गवानी पड़ी, ऐसा तो पार्टी ने कभी सोचा ही नहीं होगा। यही हाल नगरीय निकाय अध्यक्षों के चुनाव में भी हुआ। अब यह चिंतन का विषय है कि पार्टी की ये दुर्गति आखिर कैसे हुई ?

इस बार प्रदेश में अधिकतर जगहों पर नगर निगमों के मुखिया भाजपा के रहेंगे, और अधिकतर वार्डों में पार्षद भी। यह नौबत आखिर क्यों आयी ? मोटे तौर पर देखें तो यह साफ नजर आता है कि कांग्रेस पार्टी ने यह चुनाव गंभीरता से नहीं लड़ा, वहीं पार्टी के नेताओं के बीच एकजुटता भी नजर नहीं आयी। उधर साल भर पहले प्रदेश में बनी भाजपा की सरकार ने अपनी गारंटियों को पूरा किया उसके चलते सरकार पर जनता का भरोसा बढ़ा, यह भी एक वजह मानी जा रही है। मोटे तौर पर अगर कांग्रेस की हार की प्रमुख वजहों पर गौर करें तो कुछ इस तरह की तस्वीर नजर आती है :

नेतृत्व विहीन पार्टी और गुटबाजी

छत्तीसगढ़ की कांग्रेस पार्टी का भले ही अपना संगठन है और उसके नामित पदाधिकारी भी हैं, मगर पार्टी के प्रमुख नेताओं के बीच एकजुटता का अभाव नजर आ रहा है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज प्रभावी नेतृत्व देने में असफल रहे हैं। चुनाव के दौरान पार्टी के बड़े नेता जिस तरह बयानबाजी कर रहे थे वह इसकी ओर साफ संकेत देते हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के आने से पहले जिस तरह प्रमुख नेताओं ने एकजुट होकर दमदारी से चुनाव लड़ा, वैसा तो नजर ही नहीं आ रहा है। पूरे चुनाव में गुटबाजी हावी रही (भूपेश गुट, टीएस बाबा गुट और महंत गुट। इन नेताओं के बीच परस्पर तालमेल कहीं नजर नहीं आया. पार्टी के बड़े नेता अच्छी तरह चुनाव प्रचार करते भी नजर नहीं आये। जनता इसे साफ तौर पर देख रही थी।

इस चुनाव में हार के बाद वरिष्ठ नेता भी साफ तौर पर यह कहते नजर आ रहे हैं कि पार्टी के प्रमुख नेता भूपेश बघेल, टीएस सिंह देव, चरणदास महंत ने एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ा जिसका परिणाम सामने है।

प्रत्याशी चयन में रही खामियां

नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस पार्टी को शर्मनाक हार का मुंह देखना पड़ा तो इसकी एक अहम वजह प्रत्याशी चयन भी रही। संगठन ने टिकिट फायनल करने में काफी देर लगा दी, उपर से गुटीय लड़ाई आखिरी दौर तक जारी रही। 27 जनवरी को नामंकन का आखिरी दिन था और 26 जनवरी की शाम तक कांग्रेस में टिकट का खेल चलता रहा। कांग्रेस के लोग भी स्वीकार करते हैं कि बिलासपुर और अंबिकापुर जैसे दो-एक नगर निगमों को छोड़ दें कांग्रेस ने ठीकठाक चेहरों को मैदान में उतारा नहीं।

प्रत्याशी चयन में नेताओं की ‘कोटा प्रणाली’ ने भी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है। रायपुर में पहले महापौर और फिर पांच साल सभापति रहे प्रमोद दुबे की पत्नी को टिकिट दिया गया, वहीं चिरमिरी में डॉ. विनय जायसवाल को। विनय के पांच साल विधायक रहने के कारण उनकी एंटी इंकम्बेंसी थी ही, उनकी पत्नी चिरमिरी की महापौर रहीं। अपने लोगों को टिकिट देने के चक्कर में कांग्रेस नेताओं ने ऐसी गल्तियां कई जगहों पर की।

जनता तक नहीं पहुंचा घोषणा पत्र

कांग्रेस ने चुनाव से पहले घोषणा पत्र भी जारी किया, लेकिन उसका प्रचार कमजोर रहा। इसके उलट बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र को घर-घर तक पहुंचाया, जिससे जनता को उनकी नीतियों पर ज्यादा भरोसा हुआ। कांग्रेस उन इलाकों में ज्यादा फोकस करती रही, जहां पहले से उसका समर्थन था, जिससे नए मतदाता आकर्षित नहीं हुए। आलम यह था कि कांग्रेस पार्टी के नेता नगरीय निकायों में कराये गए अपने काम भी ठीक से बता नहीं सके।

वहीं गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस पार्टी उन मुद्दों को ठीक से नहीं भुना सकी जिनको लेकर वह प्रदेश स्तर बयानबाजी करती रही। यह बात साफ नजर आती है कि प्रदेश में अपराध बढ़े हैं, जिसे रोकने में विफलता भी नजर आती है, मगर कांग्रेस ने इस मुद्दे को जनता के समक्ष अच्छी तरह नहीं रखा। वहीं करप्शन का मुद्दा भी प्रमुख है। नई सरकार के आने के बाद भी घपल-घोटले जमकर हो हो रहे हैं और ये समय-समय पर उजागर भी हो रहे हैं, मगर नगरीय निकाय चुनाव में यह मुद्दा भी गायब रहा।

जांच एजेंसियों ने धूमिल की पार्टी की छवि

प्रदेश की जनता ने पिछली बार भाजपा की डेढ़ दशक की सत्ता के बाद कांग्रेस को सत्ता की चाबी सौंपी। भूपेश बघेल के नेतृत्व में सरकार बनी। सब कुछ ठीक चलता रहा मगर कालांतर में जिस तरह की परिस्थितियां बनी, उसका आम अवाम की मनःस्थिति पर काफी असर पड़ा। प्रदेश में बड़े घोटाले हुए और कांग्रेस की सरकार के दौरान ही केंद्रीय जांच एजेंसियों ने छापामार कार्रवाई शुरू कर दी। इन घोटालों में पार्टी के बड़े नेताओं और सरकारी अफसरों की संलिप्तता भी उजागर हुई। आलम यह है कि कांग्रेस के नेताओं और अधिकारियों को जेल की हवा खानी पड़ी। जांच अब भी चल रही है और गिरफ्तारियां भी हो रही हैं। प्रदेश में जिस तरह हाई प्रोफाइल करप्शन हुआ, उसके चलते कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी, लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की दुर्गति हुई और अब स्थानीय चुनाव ने और भी बुरी गत बना दी है।

सत्ता पक्ष पर भरोसा और गारंटी

राजनीति का यह कडुआ सच होता है कि प्रदेश में जिसकी सत्ता होती है, जनता उस पर ज्यादा भरोसा करती है। भाजपा ने विधानसभा चुनाव में महिलाओं को हर महीने हजार रूपये देने और किसानों से 3100 रुपये प्रति क्विंटल धान खरीदने की जो गारंटी दी, उसे पूरा भी किया। दूसरी गारंटियां भी पूरी होती जा रही हैं, ऐसे में जनता सत्ता पर काबिज भाजपा पर भरोसा क्यों न करे, इसका कोई जवाब नहीं है। डायरेक्ट बेनिफिट की जो योजनाएं BJP की राज्य और केंद्र की सरकार चला रही है, वह भी भाजपा की जीत में काफी मददगार रही हैं।

चुनाव के दौरान यह अफवाह भी उड़ा दी गई कि अगर इस चुनाव में भाजपा की जीत नहीं हुई तो महिलाओं की महतारी वंदन योजना बंद हो जाएगी। भाजपा को वोट पड़ने की यह भी प्रमुख वजह रही।

चुनावी रणनीति का अभाव

कांग्रेस पार्टी में पिछली सरकार के दौरान इतना बिखराव आ चुका है कि पार्टी के नेता संगठन को मजबूत करने और चुनाव को दमदारी से लड़ने को लेकर कोई स्टेटजी भी नहीं बना पा रहे हैं। नगरीय निकाय के चुनाव में तो कांग्रेस का कोई रोडमैप भी नजर नहीं आया। नगरीय निकाय चुनाव में रणनीति बनी भी तो उस पर इंप्लीमेंट करने वाले भी नहीं थे।

इधर चुनाव उधर बयानबाजी में लगे रहे नेता

इस चुनाव के दौरान पार्टी के प्रदेश स्तर के नेता एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहे। प्रदेश में स्थानीय चुनाव चल रहे हैं और वरिष्ठ नेता इस बयानबाजी में लगे रहे कि अगला चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जायेगा। इस मुद्दे को लेकर वरिष्ठ नेता आपस में ही सर फुटौव्वल करते रहे। इसका असर भी जनता के मानस पटल पर पड़ता है।

आलम ये है कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पूर्व उप मुखयमंत्री टीएस सिंह देव और डॉ चरण दास महंत अपने इलाके की सीट भी नहीं बचा पाए हैं। इससे बड़ी फजीहत और क्या हो सकती है।

जातिगत समीकरण साधने में नाकाम

टिकट वितरण में कांग्रेस ने जातिगत संतुलन पर ध्यान नहीं दिया, जबकि बीजेपी ने सोची-समझी रणनीति अपनाई। स्थानीय प्रभावशाली नेताओं की पसंद को टिकट दिया गया, जिससे पार्टी के मजबूत वोट बैंक में सेंध लग गई। असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं ने बगावत कर चुनाव लड़ा, जिससे पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ।

नाराज कार्यकर्ताओं को नहीं मना सकी कांग्रेस

कांग्रेस के कई कार्यकर्ता टिकट वितरण से नाराज थे और पार्टी ने उन्हें मनाने में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। चुनाव के बाद कांग्रेस ने 18 नेताओं का निलंबन रद्द कर उन्हें वापस लिया, लेकिन यह फैसला पहले लिया जाता तो स्थिति अलग हो सकती थी। बागी नेता मैदान में डटे रहे, जिससे कांग्रेस को सीधा नुकसान उठाना पड़ा।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी अहम मुद्दा

छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ सालों से जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है, उसकी कोई खुलकर चर्चा नहीं करता, मगर दबी जुबान लोग आपस में इसके बारे में बात करते जरूर सुने जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ की राजनीति में जातिगत समीकरण तो हावी है, मगर दबे पांव जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है, उसका भी चुनाव में काफी असर पड़ने लगा है। प्रदेश में होने वाले बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन और इसके माध्यम से दिए जाने वाले सन्देश भी काफी असर डालते हैं। वहीं धर्म के मुद्दे पर राष्ट्रीय नेताओं के बयान भी कहीं न कहीं भाजपा के चुनावी एजेंडे को मजबूत करते हैं।

प्रदेश में शहरी सरकार का चुनाव तो हो गया है, और अब ग्रामीण सत्ता का चुनाव होने जा रहा है। यह चुनाव भले ही पार्टी के बैनर पर नहीं लड़ा जाता, मगर प्रदेश में विशेषकर भाजपा और कांग्रेस के स्थानीय नेता इस चुनाव में दमखम के साथ लड़ते हैं और उनका आगे का भविष्य यहीं पर तैयार होता है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा ने अपने प्रत्याशी भी खड़े किये हैं, और पार्टी इस चुनाव को भी काफी गंभीरता से ले रही है, मगर हताश-निराश कांग्रेस पार्टी की तरफ से ऐसा कोई भी प्रयास नजर नहीं आ रहा है, जबकि पिछले कई दशकों से पंचायत स्तर पर कांग्रेस का ही दबदबा रहा है, जिस पर भाजपा सेंध लगाने जा रही है। नगरीय निकाय के बाद अब तो यह साफ नजर आ रहा है कि गांव की सत्ता भी भाजपा के हाथ में जा रही है।

बहरहाल यह समय कांग्रेस पार्टी के नेताओं के चिंतन करने का है। पंचायत चुनाव के बाद अब पार्टी को सांगठनिक तौर पर मजबूत करने का बहुत समय कांग्रेस नेताओं के पास होगा। मगर यह देखना होगा कि बुरी तरह बिखर गई पार्टी को सहेजने के लिए वरिष्ठ नेता फिर से एकजुट होने की पहल करते हैं या फिर सब कुछ यूं ही चलता रहेगा।