टीआरपी डेस्क। राम जन्मभूमि विवाद वैसे तो काफी पुराना है लेकिन इसकी कानूनी जंग आज से 135 साल

पहले  1885 में शुरू हुई थी और भगवान श्रीराम को इस मामले में एक पक्षकार बनाने का फैसला 104 साल

लग गए बाद में 1989 में रामलला विराजमान को कोर्ट में पक्ष के रूप में स्वीकार किया गया।

 

आपको बता दें कि हाई कोर्ट के एक रिटायर्ड जज जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर

अदालत में पेश हुए थे। राम जन्मभूमि विवाद में, ‘रामलला विराजमान’ को भी एक पक्ष बनाने की सलाह भारत

के पूर्व अटॉर्नी जनरल लाल नारायण सिन्हा ने दी थी।

 

अदालती दांव-पेंच की दिक्कतें हुई दूर

पूर्व अटॉर्नी जनरल लाल नारायण सिन्हा का कहना था कि इस अदालती दांव-पेंच में भगवान को एक पक्ष बनाने

से राम जन्मभूमि के रास्ते की क़ानूनी दिक्कतें दूर होगी। उस वक्त इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि

मुस्लिम पक्ष परीसीमन कानून की आड़ में राम जन्मभूमि के दावे का विरोध करेगा।

 

इस संबंध में 1963 के लॉ ऑफ़ लिमिटेशन का हवाला दिया जा रहा था। 1963 का परिसीमन क़ानून किसी

भी विवाद में पीड़ित पक्ष के दावा जताने की समय सीमा तय करता है।

 

इस मामले में हिंदू पक्ष के दावे का विरोध करते हुए मुस्लिम पक्ष इस कानून के हवाले से ये दावा कर रहा था कि

बरसों से विवादित जगह पर उनका कब्जा है और इतना लंबा अरसा गुजर जाने के बाद अब हिंदू पक्षकार इस जमीन

पर दावा नहीं कर सकते हैं।

 

इसके बाद रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल इस मुकदमे में बतौर रामलला की बाल्यावस्था के दोस्त बनकर

शामिल हो गए थे।

 

राम के दोस्त देवकीनंदन अग्रवाल के इस मुकदमे के पक्षकार बनते ही यह मुकदमा परिसीमन कानून के दायरे

से बाहर आ गया और कानूनी दांवपेंच के गलियारे में इस मुकदमें ने रफ्तार पकड़ ली।

 

रामलला विराजमान को जब मुकदमे में शामिल होने की इजाजत दी गई तो किसी भी पक्षकार ने इसका विरोध नहीं किया।

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