नई दिल्ली। आरक्षण के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर सख्ती दिखाई है। कोर्ट ने कहा कि किसी भी हाल में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण की जरूरत नहीं है। कोर्ट ने फैसला दिया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में स्थित स्कूलों में अनुसूचित जनजाति वर्ग से संबंधित शिक्षकों का 100 प्रतिशत आरक्षण संवैधानिक रूप से अमान्य है। कोर्ट ने सरकार की सोच पर चिंता भी जताई है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भर्तियों के संबंध में की है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह टिप्पणी आंध्र प्रदेश सरकार के साल 2000 के एक आदेश पर की। राज्य सरकार ने करीब 20 साल पहले अधिसूचित क्षेत्रों के स्कूलों की शिक्षक भर्ती में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का आदेश दिया था।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने सुनवाई के दौरान सरकार के इस फैसले को असांविधानिक, दुर्भाग्यपूर्ण, गैरकानूनी और मनमाना करार दिया है।
कोर्ट ने इस पूरे मामले को लेकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकार दोनों पर जुर्माना लगाया है। कोर्ट ने कहा कि वे आरक्षण में 50 फीसदी सीलिंग को तोड़ना चाहते थे, जो सरकार की सोच समझ से बाहर है।
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि जनजातीय क्षेत्रों में 100 फीसदी आरक्षण देने का कोई मतलब नहीं बनता। ट्राइबल्स को सिर्फ ट्राइबल टीचर ही पढ़ा सकते हैं, यह बेहद निंदनीय सोच है।
कोर्ट ने सवाल किया कि आखिर अन्य वर्ग के लोग स्थानीय लोगों को क्यों नहीं पढ़ा सकते। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हम मानते हैं कि आजादी के 72 साल बाद भी समाज के निचले तबके तक सभी लाभ नहीं पहुंच पा रहे हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति को आगे बढ़ाने के लिए ही आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
लेकिन अगर हम कुछ निश्चित क्षेत्रों में उन्हें 100 फीसदी आरक्षण देने लगेंगे, तो अन्य जगहों पर रहने वाले ट्राइबल्स के अधिकारों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। कोर्ट ने यहां तक कहा कि यह भी विचार करने की जरूरत है कि जो लोग आर्थिक रूप से सही हैं उन्हें क्या आरक्षण की जरूरत है।
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