टीआरपी डेस्क। अगर आप भारत के आम चुनाव की तर्ज पर अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव ( us presidential Election ) को समझने की कोशिश कर रहे हैं तो सच में गच्चा खा जाएंगे। भारत में दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी या तो प्रधानमंत्री उम्मीदवार की घोषणा कर देती हैं या चुनावी नतीजे आने के बाद इस पर फ़ैसला होता है।

अमरीका में ठीक इसके उलट है। यहां की दोनों प्रमुख पार्टियां रिपब्लिकन ( Republican Party ) और डेमोक्रेटिक पार्टी ( Democratic Party ) राष्ट्रपति उम्मीदवार के चयन को लेकर भी जनता के बीच जाती हैं। दोनों पार्टियों में उम्मीदवार बनने की चाहत रखने वाले लोग हर स्टेट में प्राइमरी और कॉकस इलेक्शन में हिस्सा लेते हैं। प्राइमरी और कॉकस चुनाव में जो जीतता है वह दोनों पार्टियों की ओर से औपचारिक उम्मीदवार बनता है.

कौन बन सकता है अमरीकी राष्ट्रपति?

नियम के मुताबिक़ US President का चुनाव लड़ने के लिए स्वाभाविक रूप से जन्म आधारित अमरीकी नागरिक होना चाहिए। उम्र कम से कम 35 साल होनी चाहिए और 14 सालों से वहां का निवासी होना चाहिए। यह सुनने में कितना आसान लग रहा है. क्या इतना ही आसान है? सच यह है कि 1933 से अब तक अमरीका का हर राष्ट्रपति एक गवर्नर, सीनेटर या फाइव स्टार सैन्य जनरल रहा है। जैसे ही किसी शख़्श के नाम पर पार्टी नॉमिनेशन को लेकर विचार किया जाता है वैसे ही उसे मीडिया का अटेंशन मिलना शुरू हो जाता है। 2016 के चुनाव में एक समय तक 10 गवर्नर और पूर्व गवर्नर के अलावा 10 सीनेटर और पूर्व सीनेटर उम्मीदवारी हासिल करने उतरे थे। आख़िर में दोनों पार्टियों की तरफ़ से एक-एक उम्मीदवार मैदान में होते हैं।

दुनियाभर में सबसे जटिल, लंबी और महंगी प्रक्रिया

अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव ( US presidential Election ) में राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन प्रक्रिया दुनिया भर में सबसे जटिल, लंबी और महंगी प्रक्रिया मानी जाती है। हर चार साल बाद Democratic और Republican Party की उम्मीदवारी हासिल करने की चाहत रखने वाले लोग सर्दियों और वसंत ऋतु के दौरान आम चुनाव से पहले सभी राज्यों में प्राइमरी और कॉकस चुनाव का सामना करते हैं। हर राज्य में प्राइमरी और कॉकस चुनाव जीतने के बाद इन्हें निश्चित संख्या में डेलिगेट्स का समर्थन हासिल होता है। जो उम्मीदवार महीनों चलने वाली इस प्रक्रिया में अपनी पार्टी के डेलिगेट्स की तय संख्या अपने पक्ष में कर लेता है वह नॉमिनेशन हासिल कर लेता है। मतलब वह पार्टी का औपचारिक उम्मीदवार बन जाता है।

अमरीका में कभी चुनावी कैंपेन ख़त्म नहीं होता?

ज़्यादातर राष्ट्रपति उम्मीदवार अयोवा और न्यू हैंपशर जैसे राज्यों में अनौपचारिक रूप से प्राइमरी इवेंट्स के एक साल पहले ही कैंपेनिंग शुरू कर देते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि अमरीका में कभी चुनावी कैंपेन ख़त्म नहीं होता है। नॉमिनेशन प्रक्रिया के तहत इन्हीं दो राज्यों से प्राइमरी और Caucus election की शुरुआत होती है। 2016 में प्राइमरी कैलेंडर की शुरुआत एक फ़रवरी से हुई थी। एक फ़रवरी को ही रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी ने अयोवा कॉकस का आयोजन किया। इसके बाद से ही अमरीका में चुनाव कैंपेन शुरू हो जाता है। 1970 के दशक में अमरीका में पार्टियों ने नॉमिनेशन प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया। संभावित उम्मीदवार की तस्वीर अब काफ़ी पहले साफ़ हो जाती है। एक वक़्त था जब वोटिंग के कुछ हफ़्ते पहले तस्वीर साफ़ होती थी।

कॉकस क्या है?

Caucus का आयोजन स्कूल, जिम, टाउन हॉल समेत अन्य सार्वजनिक स्थानों पर होता है। कॉकस एक तरह की स्थानीय बैठक है। इनका आयोजन दोनों प्रमुख पार्टियां करती हैं। आयोजन में होने वाले खर्च भी यही वहन करती हैं। बैठक में रजिस्टर्ड पार्टी मेंबर्स जुटते हैं और राष्ट्रपति उम्मीदवारों के चयन को लेकर समर्थन देने पर बात करते हैं। दोनों प्रमुख पार्टियां इस इवेंट को अलग-अलग तरीक़े से हैंडल करती हैं। मिसाल के तौर पर 2016 के अयोवा कॉकस में रिपब्लिकन्स ने पसंदीदा उम्मीदवार के लिए गोपनीय बैलट का इस्तेमाल किया जबकि डेमोक्रेट्स सदस्यों ने ग्रुप में बँटकर अपने पसंदीदा प्रत्याशी का समर्थन किया। डेमोक्रेटिक प्रत्याशी को डेलिगेट्स हासिल करने के लिए कुल आए लोगों का ख़ास फ़ीसदी समर्थन पाना ज़रूरी है।

Caucus में हिस्सा लेने वाले लोग तकनीकी रूप से राष्ट्रपति प्रत्याशी नहीं चुनते हैं बल्कि वे डेलिगेट्स का चुनाव करते हैं। ये डेलिगेट्स फिर कन्वेंशन स्तर पर अपने उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करते हैं। डेलिगेट्स नेशनल कन्वेंशन के लिए राज्य से और कांग्रेसनल डिस्ट्रिक्ट कन्वेंशन से चुने जाते हैं। कॉकस को कोई आधुनिक राष्ट्रपति नामांकन के लिए विकसित नहीं किया गया है बल्कि अमरीका में राजनीतिक पार्टियां इसका पहले से इस्तेमाल करती रही हैं। अयोवा जैसे राज्य में हर दूसरे साल पर कॉकस का आयोजन होता है। हालांकि ज़्यादातर राज्य में उम्मीदवारों के चयन के लिए प्राइमरी का आयोजन होता है।

प्राइमरी क्या है?

कॉकस से अलग प्राइमरी का संचालन नियमित पोलिंग स्टेशन पर होता है। आमतौर पर इसके लिए भुगतान स्टेट करता है और संचालन राज्य निर्वाचन अधिकारी करते हैं। वोटर्स सामान्य तौर पर गोपनीय बैलट के ज़रिए पसंद के उम्मीदवार को वोट करते हैं। सामान्य तौर पर प्राइमरी दो तरह की होती हैं- क्लोज्ड प्राइमरी जिसमें केवल पार्टी के रजिस्टर्ड वोटर्स हिस्सा लेते हैं। दूसरी है ओपन प्राइमरी। इसमें किसी भी पार्टी का सदस्य होना ज़रूरी नहीं है।

1970 के दशक के पहले ज़्यादातर राज्यों में डेलिगेट्स का चुनाव कॉकस के जरिए होता था लेकिन 1972 में सुधार के बाद नामांकन प्रक्रिया को ज़्यादा समावेशी और पारदर्शी बनाया गया। इसके बाद ज़्यादातर राज्यों ने प्राइमरी को अपना लिया। 2016 में केवल 14 राज्यों (अलास्का, कोलारैडो, हवाई, आइडहो, अयोवा, कैंजस, केन्टकी, मेईन, मिनासोटा, नर्बास्का, नेवाडा, नॉर्थ दकोटा, वॉशिंगटन और वॉयमिंग) के साथ डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया और चार यूएस इलाक़े (अमेरिकन समोआ, नॉर्दन मरिआना, पुअर्तो रिको और यूएस वर्जिन आईलैंड्स) में कॉकस का आयोजन किया गया।

अयोवा कॉकस क्यों महत्वपूर्ण है?

1970 के दशक में कई ऐसे वाकए हुए जिससे अयोवा कॉकस को राजनीतिक अहमियत हासिल हुई। पहला, शिकागो में 1968 के नेशनल कन्वेंशन के बाद डेमोक्रेटिक पार्टी ने सुधार प्रक्रिया शुरू की थी। उन दिनों युद्ध विरोधी प्रदर्शनकारी हिंसक हो गए थे। पार्टी आलाकमान की शक्ति को सीमित करने की प्रक्रिया शुरू हुई और नियमित सदस्यों के बीच नॉमिनेशन प्रक्रिया को ज़्यादा पारदर्शी बनाया गया। अन्य मामलों में डेलिगेट्स की चयन प्रक्रिया को समयबद्ध किया गया। 1972 में अयोवा में कॉकस मार्च या अप्रैल में होता था जो अब न्यू हैंपशर से ठीक पहले जनवरी में होता है।

डेलिगेट्स कौन होते हैं?

डेलिगेट्स अक्सर पार्टी कार्यकर्ता, स्थानीय नेता या उम्मीदवार के शुरुआती समर्थक बनते हैं। इसके साथ ही डेलिगेट्स कैंपेन स्टीअरिंग कमिटी के सदस्य और पार्टी के लंबे समय से सक्रिय सदस्य को भी बनाया जाता है।

डेमोक्रेटिक पार्टी में उम्मीदवार को सामान्यतः आनुपातिक आधार पर डेलिगेट्स मिलते हैं। उदाहरण के लिए एक कैंडिडेट को प्राइमरी या कॉकस में एक तिहाई वोट या समर्थन मिला तो उसके हिस्से में एक तिहाई डेलिगेट्स आएंगे। रिपब्लिकन पार्टी में नियम अलग हैं। कुछ राज्यों में डेलिगेट्स आनुपातिक आधार पर मिलते हैं और कुछ राज्यों में विजयी उम्मीदवार को सारे डेलिगेट्स मिल जाते हैं। 2016 में रिपब्लिकन पार्टी के लिए ऐसे 10 राज्य थे। अन्य राज्यों में मिलेजुले तरीके अपनाए जाते हैं। इससे पहले अयोवा कॉकस में कोई डेलिगेट हासिल नहीं होता था। इसमें केवल पार्टी के वफ़ादारों के समर्थन को परखा जाता था लेकिन 2016 में नियम बदल दिया गया।

प्राइमरी और कॉकस के टर्नआउट कितने होते हैं?

आम तौर पर प्राइमरी के मुक़ाबले कॉकस में टर्नआउट कम होते हैं। 2012 में अयोवा में रिपब्लिकन पार्टी के लिए केवल 6.5 पर्सेंट वोटर्स ही कॉकस में शरीक हुए थे जबकि यहां 20 पर्सेंट रजिस्टर्ड रिपब्लिकन हैं। 2016 में जब दोनों पार्टियों ने कैंपेन चलाया तो 16 पर्सेंट लोग पहुंचे। न्यू हैंपशर में टर्नआउट 31 पर्सेंट रहा।

कुल कितने डेलिगेट्स और कितने की ज़रूरत?

2016 में डेमोक्रेटिक कैंडिडेट को कुल 4,763 डेलिगेट्स में से 2,382 डेलिगेट्स पार्टी का आधिकारिक उम्मीदवार बनने के लिए जीतने थे। हर राज्य में डेमोक्रेटिक वोटर्स की संख्या के आधार पर डेलिगेट्स का आवंटन किया जाता है।

दूसरी तरफ़ रिपब्लिकन पार्टी में उम्मीदवार बनने के लिए कुल 2,472 डेलिगेट्स में से 1,237 डेलिगेट्स जीतने होते हैं। रिपब्लिकन पार्टी ने सभी राज्यों में 10-10 डेलिगेट्स फिक्स किए हैं। इसके साथ ही तीन सभी कांग्रेसनल डिस्ट्रिक्ट में और पूर्ववर्ती राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के इलेक्टोरल वोट्स के आधार पर भी राज्यों में डेलिगेट्स का निर्धारण होता है।

दोनों पार्टियां डेलिगेट्स की एक ख़ास संख्या अपने पास सुरक्षित रखती हैं। ये सामान्य तौर पर नेशनल कन्वेंशन में किसी को समर्थन करने के लिए बाध्य नहीं होते हैं। रिपब्लिकन पार्टी में सुपरडेलिगेट्स सभी स्टेट की नेशनल कमिटी में तीन-तीन हैं। 2016 में कुल डेलिगेट्स के ये सात पर्सेंट थे। डेमोक्रेटिक पार्टी में सुपरडेलिगेट्स में न केवल नेशनल कमिटी के मेंबर्स को शामिल किया जाता है बल्कि कांग्रेस के सभी मेंबर्स, गवर्नस, पूर्व राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के साथ सीनेट और हाउस के पूर्व नेता के अलावा डेमोक्रेटिक नेशनल कमिटी के अध्यक्ष भी शामिल होते हैं। 2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी में कुल डेलिगेट्स 15 पर्सेंट सुपरडेलिगेट्स हैं।

डेमोक्रेटिक पार्टी के सुपरडेलिगेट्स की तरफ़ 2008 की प्रेसिडेंशल प्राइमरी में मीडिया का ध्यान ख़ूब आकर्षित हुआ था। तब सीनेटर बराक ओबामा और सीनेटर हिलरी क्लिंटन के बीच नॉमिनेशन के लिए बेहद कड़ा मुक़ाबला जून महीने तक चला था। तब ज़्यादातर लोगों का मानना था कि कुल डेलिगेट्स के 20 पर्सेंट सुपरडेलिगेट्स ही उम्मीदवार का फैसला करेंगे।

निर्दलीय की भूमिका क्या होती है?

निर्दलीय वोटर्स किसी पार्टी से बंधे नहीं होते हैं। ये किसी ग्रुप के रूप में काम नहीं करते हैं। हालांकि कथित रूप से कई राज्य ओपन प्राइमरी का आयोजन करते हैं और इसमें निर्दलीय वोटर्स हिस्सा ले सकते हैं। कुछ राज्यों में तो इलेक्शन से पहले पार्टी छोड़ने की भी आज़ादी होती है। ऐसे में निर्दलीय अपनी निष्ठा रिपब्लिकन या डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ जता सकते हैं। तीसरी पार्टी जैसे ग्रीन पार्टी डेलिगेट्स हासिल कर सकती है लेकिन तीसरी पार्टी शायद ही बड़ी संख्या में प्राइमरी वोट हासिल करती है ऐसे में इसका कोई खास मतलब नहीं रह जाता।

नेशनल कन्वेंशन में क्या होता है?

हाल के दशकों में नेशनल कन्वेंशन केवल दस्तूर की तरह हो गया है। इसमें सामान्य तौर पर उस उम्मीदवार की आधिकारिक रूप से पुष्टि की जाती है जिसने पहले पर्याप्त डेलिगेट्स जीत लिए हैं। इस स्थिति में यह सामान्य तौर पर मीडिया इवेंट की तरह हो जाता है जिसमें पार्टी की नीति, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति नॉमिनी की घोषणा की जाती है। हालांकि ऐसे भी उदाहरण हैं जब पार्टी उम्मीदवार का चयन प्राइमरी या कॉकस में नहीं हो पाया और इसका फ़ैसला नेशनल कन्वेंशन में हुआ। आख़िरी बार यह 1952 में हुआ जब नेशनल कन्वेंशन में कई राउंड की वोटिंग के बाद उम्मीदवार का चयन किया गया।

उम्मीदवारों की घोषणा के बाद असली चुनाव

अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव का असली मज़ा तो रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ़ के औपचारिक रूप से उम्मीदवारों की घोषणा के बाद आता है। यह गर्मियों के बाद शुरू हो जाता है। दोनों कैंडिडेट देश भर में अपने एजेंडों के साथ एक दूसरे पर तीखे हमले करते हैं। वोटिंग के 6 हफ़्ते पहले दोनों कैंडिडेट्स के बीच टेलिविजन पर तीन प्रेजिडेंशल बहस होती है। जो उम्मीदवार सभी राज्यों में सबसे ज़्यादा वोट हासिल करता है वह राष्ट्रपति बनता है। अमरीकी चुनाव में इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम बेहद अहम है। यह लोगों का समूह होता है जो 538 इलेक्टर्स को चुनता है। जिसे 270 इलेक्टर्स का समर्थन मिल जाता है वह अमरीका का अगला राष्ट्रपति बनता है।

लेकिन सभी राज्य समान नहीं हैं। उदाहरण के लिए कैलिफ़ोर्निया की आबादी कोनेटिकेट से 10 गुना ज़्यादा है ऐसे में दोनों राज्यों में इलेक्टर्स समान नहीं होंगे। सबसे हाल की जनगणना के मुताबिक़ जितनी आबादी होती है उसी के आधार पर प्रत्येक राज्य में निश्चित संख्या में इलेक्टर्स होते हैं। जब नागरिक अपने पसंदीदा उम्मीदवार को वोट कर रहे होते हैं तो वे दरअसल, इलेक्टर्स को वोट देते हैं। ये इलेक्टर्स अपने-अपने प्रत्याशी के प्रति निष्ठा ज़ाहिर करते हैं। कुछ राज्यों में मामला दिलचस्प है। नर्बास्का और मेईन को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में जीतने पर सारे इलेक्टर्स मिल जाते हैं। यदि कोई न्यूयॉर्क में सभी चुनाव जीतता है तो उसे सभी 29 इलेक्टर्स मिलेंगे। इसी रेस में 270 का आँकड़ा छूना होता है। ऐसे में स्विंग स्टेट काफ़ी मायने रखते हैं।

स्विंग स्टेट्स क्या हैं?

दो कैंडिडेट्स के मैदान में आ जाने के बाद 270 इलेक्टर्स पाने की रेस सभी राज्यों में शुरू हो जाती है। दोनों पार्टियां सोचती हैं कि वे कम से कम कुछ ख़ास बड़े या छोटे राज्यों को अपने नियंत्रण में रखे। रिपब्लिकन पार्टी को टेक्सस में बहुत कैंपेन की जरूरत नहीं पड़ती। ये यहां ज़्यादा वक़्त नहीं देते क्योंकि वोटर्स पहले से ही इस पार्टी के पक्ष में होते हैं। उसी तरह कैलिफ़ोर्निया में डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ती है। फ्लोरिडा में 29 इलेक्टर्स हैं। 2000 के इलेक्शन में फ्लोरिडा का ख़ास रोल रहा था। फ्लोरिडा जॉर्ज डब्ल्यू बुश के पक्ष में गया था। बुश राष्ट्रीय लेवल पर लोकप्रिय वोट हासिल करने में नाकाम रहे थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट में केस बाद उन्होंने इलेक्टोरल कॉलेज जीत लिया थ।

क्या है इलेक्टोरल कॉलेज ?

इलेक्टोरल कॉलेज के ज़रिए 538 इलेक्टर्स को चुना जाता है। ये इलेक्टर्स ही अमरीकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का फ़ैसला करते हैं। जब वोटर्स आठ नवंबर मंगलवार को वोट करने जाएंगे तो वे अपने पसंदीदा उम्मीदवार के इलेक्टर्स को अपने स्टेट में चुनेंगे। जो उम्मीदवार इलेक्टोरल वोट्स का बहुमत हासिल करेगा वह अमरीका का अगला राष्ट्रपति होगा। 538 इलेक्टर्स में 435 रिप्रेजेंटेटिव्स, 100 सीनेटर्स और तीन डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया के इलेक्टर्स होते हैं।

कैसे काम करता है इलेक्टोरल कॉलेज ?

हर चार साल बाद अमरीकी वोटर्स राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए वोट करते हैं। सभी लेकिन दो राज्यों में जो उम्मीदवार स्टेट वोट को बहुमत से हासिल करने में कामयाब रहता है वह स्टेट इलेक्टोरल जीत लेता है। नर्बास्का और मेईन में इलेक्टोरल वोट आनुपातिक प्रतिनिधित्व से निर्धारित होता है। इसका मतलब यह हुआ कि इन दोनों राज्यों सबसे ज़्यादा वोट पाने वाले को दो इलेक्टोरल वोट मिलेंगे (दो सीनेटर्स) जबकि बाक़ी बचे इलेक्टोरल वोट कांग्रेसनल डिस्ट्रिक्ट को आवंटित कर दिए जाएंगे। इस नियम से दोनों कैडिडेट को नर्बास्का और मेईन में इलेक्टोरल वोट मिलने की संभावना रहती है जबकि कुल 50 में से बाक़ी 48 राज्यों में विजेता को सभी इलेक्टर्स मिल जाते हैं।

इलेक्टर्स चुने कैसे जाते हैं?

यह प्रक्रिया राज्य दर राज्य बदलती रहती है। सामान्यतः राजनीतिक पार्टियां अपने स्टेट कन्वेंशन में इलेक्टर्स को नामांकित करती हैं। कई बार यह प्रक्रिया वोट के ज़रिए पार्टी सेंट्रल कमिटी में घटित होती है। इलेक्टर्स सामान्यतः स्टेट निर्वाचित अधिकारी, पार्टी नेता या प्रेजिडेंशल कैंडिडेट से गहरे जुड़ाव वाले लोग होते हैं।

क्या इलेक्टर्स अपने पार्टी कैंडिडेट को वोट करते हैं?

न तो संविधान और न ही संघीय इलेक्शन क़ानून इलेक्टर्स को अपनी पार्टी के प्रत्याशी को वोट देने के लए मजबूर कर सकता है। 27 राज्यों में क़ानून है कि यदि उम्मीदवार को स्टेट का लोकप्रिय वोट बहुमत के साथ हासिल हो गया है तो आवश्यकता के मुताबिक़ इलेक्टर्स अपनी पार्टी के उम्मीदवार को वोट करेंगे। 24 अन्य राज्यों में यह क़ानून लागू नहीं होता है लेकिन सामान्य तौर पर इलेक्टर्स अपनी पार्टी के कैंडिडेट को ही वोट करते हैं।

जब इलेक्टोरल कॉलेज में किसी को भी बहुमत न मिले तब क्या होता है?

यदि किसी को भी बहुमत से इलेक्टोरल वोट्स नहीं मिलते हैं तो चुनाव अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के पास चला जाता है। हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव उन तीन दावेदारों को चुनता है जिसने ज्यादातर इलेक्टोरल वोट्स जीते हैं। प्रत्येक राज्य को एक वोट का अधिकार दिया जाता है। जो भी ज़्यादातर राज्यों का वोट हासिल करता है वह राष्ट्रपति बनता है। यही प्रक्रिया उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी अपनाई जाती है।

क्या कोई लोकप्रिय वोट खोकर इलेक्टोरल कॉलेज जीत सकता है?

बिल्कुल, कोई उम्मीदवार लोकप्रिय वोट में हार का सामना कर इलेक्टोरल कॉलेज जीत सकता है। ऐसा 2000 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ हुआ था। वह अलगोर के मुक़ाबले पॉप्युलर वोट में पिछड़ गए थे लेकिन इलेक्टोरल वोट उन्हें 266 के मुकाबले 271 मिले थे।

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