श्याम वेताल

श्याम वेताल

लोकसभा चुनाव में अभी लगभग एक साल शेष है लेकिन भाजपा ने सत्ता बचाने और विपक्षी दलों ने सत्ता पाने की कवायद तेज कर दी है । सत्ता पाने की कोशिश यदि दुष्कर है तो सत्ता बचा सकने का प्रयास भी कठिन है । भाजपा के समक्ष सत्ता विरोधी लहर और उसको हवा दे रहे विपक्षी दल फिलहाल फीलगुड महसूस कर रहे हैं परंतु विरोधियों के मन मे यह भीआशंका बनी हुई है कि क्या सभी बड़े विरोधी दल एकजुट हो पाएंगे ? किसी मुद्दे पर बिखराव तो नही हो जाएगा ? नेता कौन होगा , इस मुद्दे पर कोई बोलना नही चाहता है लेकिन नेतृत्व करना सभी प्रमुख दल चाहते हैं।

बहरहाल , नेता के प्रश्न को अभी अनुत्तरित रखना ठीक ही है । अभी जरूरत है कि सभी विपक्षी दल एक जाजम पर बैठ जाएं और भाजपा से मोर्चा लेने एवं पटकनी देने की तरकीब पता करें । ऐसा लगता है कि विरोधी दल 1977 की परिस्थिति बनती देख रहें हैं जब सभी विरोधी पार्टियां इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ एकजुट हुई थीं और कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया था । सोच दुरुस्त है लेकिन किसी एक को जयप्रकाश नारायण बनना पड़ेगा । आज जे पी कौन बनना चाहेगा ? सभी को तो मोरारजी देसाईं बनने की चाहत है ।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जे पी बनना चाहते हैं या मोरारजी भाई यह अभी कहना मुश्किल है । उनका पिछला रेकार्ड कहता है कि वे मोरारजी भाई ही बनना पसंद करेंगे क्योंकि वे सत्ता में बने रहने के लिए दो बार भाजपा से तो दो बार लालूजी की पार्टी राजद से हाथ मिला चुके हैं । अब कह रहे हैं कि वे भविष्य में बिहार का नेतृत्व तेजस्वी यादव को सौप देंगें । हालांकि उनकी इस बात पर कोई भरोसा नही कर रहा है और यह भी कह रहे हैं कि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी की दौड़ में नही है लेकिन विपक्षी एकता के लिए दौड़भाग करते दिख रहे हैं । अब इसका क्या अर्थ निकाला जाय । वे विपक्षी एका की मुहिम को लेकर दिल्ली में कांग्रेस के नेताओं और केजरीवाल से मिल चुके हैं ।

अन्य नेताओं से भी मुलाकात की उनकी योजना है । इस मेलमिलाप के सिलसिले के पीछे उनका प्रधानमंत्री बनने का स्वार्थ नही है तो क्या जे पी बनने की ललक है ? यदि ऐसा है तो बहुत अच्छा है लेकिन उन्हें इसी मौके पर अपनी मंशा स्पष्ट करनी होगी । इससे उन्हें भाजपा को दिल्ली की कुर्सी से बेदखल करने में आसानी होगी और राजनीति में भी सत्तालोभी की उनकी छवि बदलेगी । इतना ही नही अन्य विरोधी दलों में उनकी साख सुधरेगी ।

आज का जे पी बनने के लिए शरद पवार भी योग्य हैं । विपक्षी एकता के लिए वे भी दिल्ली में कोशिश करते दिख रहे हैं । हाल में , उनकी पार्टी एन सी पी को तगड़ा झटका लगा है । उनके दल से राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता छीन ली गई है । इसका एक अर्थ यह भी है कि अब पवारजी राष्ट्रीय नेता नही रहे । ऐसी परिस्थिति में वे जे पी बनने का प्रयास करें तो शायद राष्ट्रीय नेता बने रह सकते हैं ।

अब चाहे नीतीश हों या पवार इन्हें तय करना होगा कि उन्हें पॉवर चाहिए या सम्मान । जे पी बनने की कोशिश की तो सम्मान जरूर मिलेगा । पॉवर की लालसा होगी तो रोशनी दूर होती जाएगी , अंधकार गहराएगा ।
आज विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा एक दूसरे के प्रति अविश्वास है । कोई दल किसी दूसरे दल पर भरोसा नही कर रहा । हर किसी को यह आशंका है कि कहीं सारी मलाई दूसरे के हिस्से में न चली जाए इसलिए सार्थक वार्ता नही हो पाती , किंतु – परंतु के साथ बातचीत अगली बैठक तक टल जाती है ।

अब सवाल उठता है कि यह किंतु – परंतु क्यों ? लक्ष्य एक होना चाहिए कि भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदख़ल करना है लेकिन लगता है वार्ता का केंद्रबिंदु भाजपा की बेदख़ली के बाद की परिस्थितियों पर केंद्रित हो जाता है इसलिए विपक्षी एकता के प्रयास सिर्फ मख़ौल बन कर रह जाते हैं ।

जाहिर सी बात है कि इस मख़ौल का लाभ भाजपा उठाती है और उसे फ़ायदा मिलता भी है । फ़िलहाल शुरू हुए विपक्षी एकता के प्रयास पर भाजपा की तीखी टिप्पणी आई है । केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने कहा कि भ्रष्टाचार में डूबे विपक्षी दल महागठबंधन बनाने की सोच रहे हैं जबकि यह महाठगबंधन होगा और इन्हें कभी सफलता नही मिलेगी । यह बात ऐसे ही नही कही गयी है । विपक्ष के कई बड़े नेताओं पर बड़े – बड़े आरोप हैं और अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं ।

भाजपा इन आरोपों को चाशनी में लपेट – लपेट कर जनता के सामने रख रही है और विरोधी दलों के नेताओं की छवि मटियामेट कर रही है । जहां तक विकास की बात है , विरोधी इस विषय पर कुछ बोल नही सकते और भाजपा का मुख्य चुनावी मुद्दा विकास ही रहता है । भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप भाजपा के किसी बड़े नेता पर सिद्ध नहीं हो सका है । केंद्र सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन फ़िलहाल नही चल रहा है । कमोबेश , यह कहा जा सकता है कि भाजपा का पलड़ा भारी है । हां , भविष्य में विपक्ष एक हो सका तो भाजपा सरकार को खतरा हो सकता है लेकिन यक्ष प्रश्न तो यही है कि क्या विरोधी दलों के नेता स्वार्थ को भूलकर एक साथ हो सकेंगे?

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