टीआरपी डेस्क। कोरोना महामारी के बाद केंद्र और राज्यों में राजकोषीय संतुलन बनाए रखने के प्रयास चल रहे थे। मगर खबर है कि कई राज्यों की वित्तीय स्थिति चिंताजनक है। इसका मुख्य कारण चुनावी वादे और उनके पालन से बढ़ता वित्तीय बोझ है। ये निष्कर्ष आर्थिक शोध एजेंसी एमके ग्लोबल की रिपोर्ट में सामने आए हैं।
चुनावी वादों का वित्तीय बोझ
पिछले दो सालों में दस राज्यों में हुए चुनावों में लोक-लुभावन वादों का दौर चला। इन वादों को पूरा करने की कोशिश ने राज्यों के वित्तीय संतुलन को कमजोर किया है। कई राज्य अपनी राजस्व क्षमता को लेकर जरूरत से ज्यादा उम्मीदें रख रहे हैं, जो उन्हें आर्थिक रूप से प्रभावित कर सकती हैं।
मुफ्त की रेवड़ी बांटने की पुरानी परंपरा
एमके ग्लोबल की चीफ इकोनॉमिस्ट माधवी अरोड़ा ने बताया कि राज्यों में चुनाव के दौरान मुफ्त सुविधाएं देने की परंपरा नई नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो दशकों में चुनावी वर्षों में 20 राज्यों का राजकोषीय घाटा उनके सकल घरेलू उत्पादन (एसजीडीपी) के मुकाबले औसतन 0.5 प्रतिशत अधिक रहा।
राजकोषीय घाटे के मामले में ये राज्य सबसे आगे
चुनावी सालों में राजस्व व्यय औसतन 0.4 प्रतिशत बढ़ता देखा गया। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में चुनावी वर्षों के दौरान राजकोषीय घाटे की स्थिति सबसे ज्यादा गंभीर रही है।
कर्ज की ओर बढ़ते कदम
रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले समय में राज्यों द्वारा अधिक कर्ज लिए जाने की संभावना है। राज्यों की उधारी पहले से बढ़ रही है, और इस वर्ष इसमें 8-10 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। वित्त वर्ष 2025 तक कुल उधारी 11 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने की उम्मीद है, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 9 प्रतिशत अधिक होगी।
सब्सिडी बिल में बढ़ोतरी का असर
2024-25 के बजट में राज्यों का संयुक्त सब्सिडी बिल 3.7 लाख करोड़ रुपये आंका गया है, जो उनके कुल राजस्व संग्रह का लगभग 8.6-8.7 प्रतिशत है। इतना बड़ा सब्सिडी बिल पिछली बार केवल कोरोना महामारी के दौरान वर्ष 2020-21 में देखा गया था। पिछले एक साल में सब्सिडी बिल में 26 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है, जिसका मुख्य कारण चुनावी वादों के तहत दी जा रही मुफ्त सुविधाएं हैं।