जबलपुर। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सूचना का अधिकार (RTI) से संबंधित अपनी तरह के पहले प्रकरण में राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त (Chief Information Commissioner) के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए उन पर गलत आदेश पारित करने के लिए 40 हजार रुपए का जुर्माना लगाया है। कोर्ट ने कहा, आदेश का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि CIC ने अपनी वैधानिक जिम्मेदारी का परित्याग कर दिया है और मामले के तथ्यों की सूक्ष्मता से जांच न करके ‘सरकार के एजेंट’ के रूप में काम किया है।

भोपाल के फिल्ममेकर नीरज निगम ने 2019 में सूचना के अधिकार के तहत पशुपालन विभाग के निदेशक आरके रोकड़े के बारे में जानकारी मांगी थी। याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई जानकारी में अधिकारी की पहली नियुक्ति का आदेश, पदस्थापना आदेश, किए गए सभी स्थानांतरण और निलंबन आदेश, उनके जाति प्रमाण पत्र की प्रमाणित प्रति, उनके खिलाफ लंबित शिकायतें आदि शामिल थीं।संबंधित सूचना अधिकारी ने 30 दिन के अंदर चाही गई जानकारी नहीं दी।
बिना जांच अपील कर दी खारिज
इसके बाद फिल्ममेकर ने मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष अपील दायर की थी। यहां से बिना जांच के ही अपील खारिज कर दी गई। दरअसल सूचना देने के लिए निर्धारित अवधि पूरी होने के बाद विभाग की ओर से उनसे प्रतिलिपि शुल्क की मांग की गई, जबकि कानून के मुताबिक अवधि निकलने के बाद वह नि:शुल्क सूचना के हकदार थे। विभाग में प्रथम अपील खारिज किए जाने के बाद उन्होंने सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सुनवाई के बाद सीआइसी ने भी उनकी अपील को निरस्त कर 2.12 लाख रुपए शुल्क जमा कराए जाने के आदेश को बहाल रखा। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने दलील दी कि आयोग ने गलत तर्कों के आधार पर अपील खारिज की।

‘अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा CIC ने’
इस फैसले को अगस्त 2023 में हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। जस्टिस विवेक अग्रवाल की कोर्ट में इस मामले में सुनवाई हुई। जस्टिस अग्रवाल ने अपने आदेश में कहा, “विवादित आदेश का सावधानीपूर्वक अवलोकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि मुख्य सूचना आयुक्त ने अपनी वैधानिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया और सरकार के एजेंट के रूप में कार्य किया, क्योंकि उन्होंने मामले के तथ्यों की गहराई से जांच नहीं की। भले ही 26 मार्च, जिस दिन आवेदन किया गया था, उसे सामान्य अधिनियम की धारणाओं के अनुसार छोड़ भी दिया जाए, तो भी 30 दिन की अवधि 25.04.2019 को समाप्त हो जाती है। इसलिए, मुख्य सूचना आयुक्त का आदेश कानून की दृष्टि में टिक नहीं सकता। आदेश को निरस्त किया जाता है। लोक सूचना आयुक्त को निर्देश दिया जाता है कि वह आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर याचिकाकर्ता को वांछित जानकारी नि:शुल्क प्रदान करें।”

आदेश के बाद भी अदालत को दिग्भ्रमित करने का प्रयास
जैसे ही अदालत ने आदेश को निरस्त किया, प्रतिवादी संख्या 2 – मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयोग, भोपाल के वकील ने प्रस्तुत किया कि लोक सूचना अधिकारी को आवेदन की प्रति 27 मार्च 2019 को प्राप्त हुई थी। इस पर अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड में उपलब्ध आवेदन पर विभाग की मुहर स्पष्ट रूप से 26 मार्च 2019 की तिथि दर्शाती है।
अदालत ने कहा कि, “यह प्रस्तुति रिकॉर्ड के विपरीत है, जो राज्य को शर्मनाक स्थिति में डालती है क्योंकि वे न केवल दस्तावेजों को सही से पढ़ने में असमर्थ हैं, बल्कि अदालत के समक्ष सही तथ्य प्रस्तुत करने में भी विफल हो रहे हैं।”
अदालत ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद धारा 7 का उल्लेख किया और कहा, “पक्षकारों के वकीलों की दलीलें सुनने और रिकॉर्ड का अवलोकन करने के बाद, यह स्पष्ट है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 7(1) के अनुसार, धारा 6 के तहत प्राप्त अनुरोध पर केंद्रीय या राज्य लोक सूचना अधिकारी को यथाशीघ्र और किसी भी स्थिति में 30 दिनों के भीतर मांगी गई जानकारी प्रदान करनी होगी, बशर्ते निर्धारित शुल्क का भुगतान किया गया हो। यदि कोई कारण धारा 8 या 9 में निर्दिष्ट हो तो वह अनुरोध अस्वीकार भी कर सकता है।”
अदालत ने आगे कहा, “यह स्पष्ट है कि सूचना अनुरोध प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर प्रदान की जानी चाहिए, न कि लोक सूचना अधिकारी की टेबल पर अनुरोध रखे जाने के 30 दिनों के भीतर। इसलिए, वी.एस. चौधरी की पहली दलील स्वीकार्य नहीं है।”
साथ ही, अदालत ने धारा 7(3)(a) का उल्लेख किया, जिसके तहत शुल्क की सूचना दिए जाने और आवेदक द्वारा वास्तविक भुगतान किए जाने में लगे समय को 30 दिन की अवधि में नहीं गिना जाएगा। लेकिन, यदि शुल्क की मांग ही 30 दिनों के बाद भेजी जाती है, जैसा कि धारा 7(1) में उल्लेखित है, तो इसे धारा 7(6) के तहत छूट नहीं दी जा सकती। नतीजतन, अदालत ने आदेश को निरस्त कर दिया।