लेमरू रेंज में एलिफेंट रिज़र्व की जगह कोयला खदान खोला तो होंगे दूरगामी परिणाम, सिंचाई और जनजीवन पर पड़ेगा व्यापक असर
लेमरू रेंज में एलिफेंट रिज़र्व की जगह कोयला खदान खोला तो होंगे दूरगामी परिणाम, सिंचाई और जनजीवन पर पड़ेगा व्यापक असर

रायपुर। कोरबा सहित आसपास के अन्य जिलों के जंगलों को मिलाकर प्रस्तावित लेमरू एलिफेंट रिज़र्व का मामला प्रदेश भर में चर्चा में है, मगर राज्य सरकार फ़िलहाल यही कह रही है कि लेमरू रिज़र्व को लेकर जो भी प्रस्ताव होगा, उस पर अंतिम फैसला मंत्रिमंडल में किया जायेगा। वन विभाग द्वारा कांग्रेस के कुछ विधायकों के सहारे लेमरू रिजर्व को छोटा करने का प्रस्ताव तैयार किया गया है, यह बात मीडिया में आते ही प्रदेश भर में इस मुद्दे पर चर्चा छिड़ गई है। पर्यावरण विद और वन्य प्राणी संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ता भी लेमरू रिजर्व को छोटा करने के खिलाफ हैं।

हसदेव नदी के अस्तित्व पर होगा खतरा

लेमरू एलिफेंट रिजर्व के लगभग 2 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे को एक चौथाई हिस्से तक सीमित करने के प्रयास शुरू हो गए हैं, इसके लिए वन विभाग ने भूमिका बनानी शुरू कर दी है। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि ऐसा इस इलाके में कोयला खदाने खोलने के लिए किया जा रहा है। उनके मुताबिक लेमरू क्षेत्र में अगर कोयला खदानें खोली गई तो यहां से होकर गुजरने वाली हसदेव नदी और बांगो बांध का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, इसके दूरगामी असर पड़ेंगे और जांजगीर तथा रायगढ़ जिले तक की सिंचाई व्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा।

10 प्रतिशत कोयले के लिए हो रहा षड्यंत्र

सुदीप त्रिपाठी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ की धरा में 58 हजार मिलियन टन कोयले का स्टॉक है। इनका 10 प्रतिशत कोयला ही हसदेव अरण्य क्षेत्र में है. वर्तमान में 158 मिलियन टन कोयले की ही प्रतिवर्ष खुदाई हो रही है। भविष्य में अगर 500 मिलियन टन की खुदाई हर वर्ष किया भी जाये तो कोयले का स्टॉक ख़त्म होने में पचासों साल लग जायेंगे। ऐसे में अगर हसदेव लेमरू क्षेत्र का कोयला खदान छोड़ भी दिया जाये तो क्या दिक्कत है।

अधिकारी सरकार को कर रहे हैं प्रेरित

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में बतौर अधिवक्ता प्रेक्टिस कर रहे सुदीप श्रीवास्तव पूर्व में विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस पार्टी के साथ कोयला खदान और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर अदालती लड़ाई लड़ चुके हैं, मगर अब सत्ता सुख भोग रही कांग्रेस के लेमरू के मुद्दे पर रुख में बदलाव के सवाल पर सुदीप का कहना है कि उद्योगपति अडानी की रूचि को देखते हुए संबंधित अधिकारी सरकार को प्रेरित कर रहे हैं। उधर जिन विधायकों का इलाका नहीं है, वे लेमरू अभ्यारण्य का एरिया कम करने की बात कह रहे हैं। वहीं डॉ चरण दास महंत, टीएस सिंहदेव और लालजीत राठिया जैसे नेताओं की अपील को तवज्जो नहीं दी जा रही है।

हाथियों का पुराना रहवास है छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन CBA के संयोजक अलोक शुक्ला का कहना है कि लोग हाथियों को झारखण्ड और उड़ीसा से आना बता रहे हैं , जबकि 1935 से पहले तक छत्तीसगढ़ हाथियों के रहवास का इलाका रहा है। लगातार हो रहे हाथी और मानव के बीच के संघर्ष को ख़त्म करने के लिए हमें हाथियों का प्राकृतिक रहवास तैयार करना ही होगा।
बीते दो दशक में छत्तीसगढ़ में खनिज का उत्खनन और दोहन ही यहां के विकास का मॉडल बन गया है। हमें यह मानकर चलना होगा कि हाथी यहां से जाने वाले नहीं हैं। एक तरफ हाथियों की मौत हो रही है तो दूसरी और लोग भी मारे जा रहे हैं। इसे रोकने के लिए एलिफेंट रिजर्व बहुत ही जरुरी है। उन्होंने सरकार की यह कहते हुए आलोचना की कि विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने अडानी के एमडीओ की खिलाफत की थी, आज अधिकांश कोयला खदाने अडानी के हिस्से में जा रहीं हैं, और आज कांग्रेस सरकार में रहकर भी कुछ नहीं कर रही है।

प्रदेश भर में 300 हाथियों का विचरण

वर्तमान में छत्तीसगढ़ में लगभग 300 हाथी मौजूद हैं , जो पूरे प्रदेश में फ़ैल गए हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के छत्तीसगढ़ प्रमुख संजय पराते ने बताया कि हाथियों से संघर्ष में हर वर्ष छत्तीसगढ़ में 50 से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, वहीं लगभग 10 हजार एकड़ में लगी फसलों को हाथी नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे मामलो में सरकार मुआवजे के रूप में लगभग 15 करोड़ रुपये बांटती है। वहीं हाथियों पर सरकार बमुश्किल 05 करोड़ रूपये खर्च करती है। इसकी बजाय सरकार अगर हाथियों पर 15 करोड़ रूपये खर्च किया जाये तो इस तरह लोग बेमौत नहीं मारे जायेंगे। हसदेव नदी से लगभग 04 लाख हेक्टेयर भूभाग पर सिंचाई होती है। अगर जंगल कटे तो नदी भी सुरक्षित नहीं रह जाएगी। खनिज के दोहन के लिए इस तरह जंगल की जमीन को उद्योगपतियो के हवाले करना किसी के लिए भी लाभदायक नहीं होगा।

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