टीआरपी डेस्क। भारत में वैसे तो सरकार ने एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग को लेकर जागरुकता फैलाने

की काफी कोशिश की है लेकिन देश में कई ऐसे लोग हैं जो छोटी-छोटी बीमार के लिए बिना डॉक्टर से

सलाह लिए खुद दवा लेकर खा लेते हैं। ऐसे में जब लोग गंभीर रूप से किसी बीमारी के शिकार होते हैं

तो यह एंटीबायोटिक्स अपना असर नहीं दिखातीं। इतना ही नहीं कई बार डॉक्टर भी हद से ज्यादा

एंटीबायॉटिक प्रिस्क्राइब कर देते हैं जो नुकसानदाय होता है।

आपको बता दे कि हाल ही में मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट के मामले सामने आए हैं उनके नतीजे चौंकाने वाले हैं।

एम्स, सीएमसी वेल्लोर और अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के वैज्ञानिकों की तरफ

से करवाई गई रिसर्च में यह बात सामने आई है।

शोघ में खुलासा हुआ है कि अब मरीजों को आखिरी विकल्प के तौर पर दी जाने वाली एंटीबायोटिक्स

कोलिस्टिन का असर भी बेअसर हो रहा है। जनवरी 2016 से अक्तूबर 2017 के बीच एम्स ट्रॉमा सेंटर

में करीब 22 मरीज ऐसे आए जिन पर एंटीबायोटिक्स कोलिस्टिन ने रिस्पॉन्ड नहीं किया। ये सभी मरीज

मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट इन्फेक्शन से पीड़ित थे।

 

1959 में हुई थी एंटीबायोटिक्स कोलिस्टिन की खोज :

कोलिस्टिन सबसे पहली एंटीबायोटिक्स में से एक दवा है जिसकी खोज 1959 में की गई थी। यह दवा ग्राम

नेगेटिव बैक्टीरिया के लिए काफी कारगर मानी जाती थी। हालांकि इस दवा के साइड इफेक्ट्स भी हैं,

इससे किडनी को नुकसान पहुंचता है जिस कारण इसकी जगह और ज्यादा सुरक्षित एंटीबायोटिक्स का

यूज होने लगा। लेकिन एक बार फिर अब कोलिस्टिन का इस्तेमाल होने लग गया है क्योंकि नई एंटीबायोटिक्स

इन्फेक्शन का इलाज करने में सफल नहीं हो पा रही है।

 

मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट के बढ़ रहे मामले :

एम्स की इस स्टडी में अनुसंधानकर्त्ताओं ने यह भी पाया कि सभी 22 मरीज सिर्फ एंटीबायोटिक्स ही नहीं

बल्कि कई दूसरी हाई एंड ड्रग्स जैसे- कैरबेपेनम्स, एक्सटेंडेड स्पेक्ट्रम सीफालोस्पोरिन्स और पीनिसिलिन

बी लैक्टामेज के प्रति भी रेजिस्टेंट थे। वहीं इस रिसर्च में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि डॉक्टर्स,

माइक्रोबायॉलिजिस्ट और पब्लिक हेल्थ ऑफिशल्स सभी को मिलकर कार्रवाई करने की जरूरत है ताकि

मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट ऑर्गैनिज्म को फैलने से रोका जा सके क्योंकि ऐसे मामले बढ़ रहे हैं।

 

इसलिए बेअसर हो रही हैं एंटीबायोटिक्स :

वैज्ञानिकों के मुताबिक इन एंटीबायोटिक्स का इंसानों ही नहीं जानवरों पर भी बेहताशा इस्तेमाल इन

दवाइयों का असर कम कर रहा है साथ ही इंफेक्शन को रोकने के लिए हेल्थकेयर फसिलिटी की कमी,

साफ और सुरक्षित पेय जल की कमी और साफ-सफाई की सुविधाएं न होना भी मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट

बीमारियों के बढ़ने की एक वजह है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस

AMR को दुनियाभर के 10 सबसे बड़े खतरों में से एक माना है। WHO ने चेतावनी जारी करते हुए कहा

है कि अगर हर तरह के एंटीबायॉटिक्स के ज्यादा इस्तेमाल पर कंट्रोल नहीं किया गया तो हालात ऐसे हो

जाएंगे कि निमोनिया, टीबी और गोनिरिया जैसे इंफेक्शन का भी इलाज नहीं हो पाएगा और इंसानी सभ्यता

खतरे में आ जाएगी।

 

खुद न बनें डॉक्टर :

उदाहरण के तौर पर सर्दी-खांसी के इलाज के लिए भी डॉक्टर एंटीबायॉटिक प्रिस्क्राइब दे देते हैं जबकि

यह बीमारी एक वायरस से होती है और इसका इलाज साधारण दवाइयों से हो सकता है। इस पर कुछ

डॉक्टरों का कहना है कि मरीज ही जल्दी ठीक होने के चक्कर में अच्छी दवाई देने पर जोर डालते हैं,

कई बार तो मरीज एक डॉक्टर के पास आराम नहीं आने पर दूसरे के पास चले जाते हैं और वे मरीज

को एंटीबायॉटिक प्रिस्क्राइब दे देते हैं। एंटीबायोटिक्स के प्रति लोगों का जागरुक होना भी बहुत जरूरी

है और इसके लिए बड़े स्तर पर प्रचार होना चाहिए।

 

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