रायपुर।भगवान बिरसा मुंडा की 144वीं जयंती आज पूरे देश में मनाई जा रही है। इस मौके पर जगह-जगह

विभिन्न कार्यक्रम का आयोजन कर उनके बलिदानों का स्मरण और श्रद्धासुमन अर्पित किया जा रहा है।

 

इसी कड़ी में छत्तीसगढ़ से भाजपा के पूर्व मंत्री केदार कश्यप ने ट्वीट कर भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर

उन्हें सादर नमन किया।

पूर्व मंत्री ने ट्वीट में लिखा कि “भगवान बिरसा मुंडा जी की जयंती पर उन्हें सादर नमन।”


जननायक भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर आइये जानते है उनसे जुडी कुछ खास बातों के बारे में।

आरंभिक जीवन

सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड प्रदेश मेंराँची के

उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में

पढने आये।

 

इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने

मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। 1894 में मानसून के छोटानागपुर

में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने

लोगों की सेवा की।

मुंडा विद्रोह का नेतृत्‍व

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी

के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में

दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित

जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया।

उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारते और पूजते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के

बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

विद्रोह में भागीदारी और अन्त

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके

चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ

सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे

मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके

बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं। जनवरी 1900 डोमबाड़ी

पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा

अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे।

 

बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 मार्च 1900 को

चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार

में लीं।

 

आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा

मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट

डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है।

 

वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा

मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है।

(भगवान बिरसा मुंडा के जीवन से जुड़ी कहानी- विकिपीडिया से साभार)

 

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