अजयभान सिंह

छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को सरकार से रुखसत हुए लगभग पांच साल पूरे होने को हैं. पार्टी ने इस पांच साल के संक्रमण काल में वो सब देखा और जिया जिसकी कल्पना कांग्रेस के अलावा सत्ता के शिखर पर रह चुके किसी दल ने नहीं की होगी. एक ऐसा दौर जब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ कार्यकर्ताओं और नेताओं के एक वर्ग ने विष-वमन को ही अपनी दिनचर्या बना लिया. पार्टी के दफ्तरों और कार्यक्रमों में मरघट सा सन्नाटा और कार्यकर्ताओं की चतुर्दिक हताशा देख ऐसा लगने लगा जैसे इस राज्य में भाजपा अस्ताचल गामी हो चली है.

भाजपा उन बेहद कड़वे अनुभवों को अपने स्मृति पटल पर दोबारा कभी नहीं देखना चाहेगी. कहने की जरूरत नहीं कि पंद्रह साल के लम्बे इंतज़ार के बाद सत्तासीन हुई बुढ़ाती, हाँफती कांग्रेस न केवल सत्ता- संजीवनी से पुनर्जीवित हो उठी बल्कि भगवा खेमे में फैलते नैराश्य और विद्वेष से बाग-बाग होती रही. भाजपा के रूप में मृतप्राय विपक्ष का एक नतीजा ये हुआ कि राज्य की भूपेश सरकार अपनी घोषित नीतियों और कार्यक्रमो की तरफ से बेपरवाह होकर कुछ ऐसे लोगों के चंगुल में फंस गयी, जिनका जन सरोकारों और सार्वजनिक जवाबदेही से ज़ाहिरन कोई लेना देना नही था.

इनमें कुछ ठीक-ठाक ओहदे वाले सरकारी कारकून थे तो कुछ राज्येत्तर शक्तियाँ थीं जिन्हें सत्ता की छाया मे बेखौफ फ़लने- फूलने का अवसर मिला. समानांतर सत्ता के इस खेल में कथित रूप से सैकड़ों करोडों के वारे- न्यारे किए गए और मुख्य विपक्षी के रूप में भाजपा तब हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, जब तक कि उसके केंद्रीय नेतृत्व वाली सरकार ने ईडी और आयकर विभाग का शिकंजा राज्य में मचे इस प्रलयंकारी घटाटोप के खिलाफ कस नहीं दिया.

ऐसे में यह सवाल लाज़िम है कि क्या अब भाजपा पूर्ववत ऊर्जा से लबरेज़ है? क्या उसके अंदर के विरोधाभासों का पटाक्षेप हो गया है? इसके अनेक उत्तर हो सकते हैं, उनमे से एक ये भी है कि शायद नहीं. पार्टी में यह सवाल अभी भी अनुत्तरित ही कि पंद्रह साल की लंबी अवधि तक सत्ता के शिखर पर आसीन रहने के बावजूद भाजपा छत्तीसगढ़ में अपना इतना विस्तार क्यों नहीं कर सकी जिससे उसे किसी थर्ड फ्रंट का परमुखापेक्षी न होना पड़े. यह समझ पाना कोई रॉकेट साइंस नहीं कि भाजपा की आंतरिक ऊर्जा संघ है और खुद भाजपा संघ का बाह्य आवरण है. पार्टी ने अपने विस्तार और संवर्धन के ठीक ठाक प्रयास किए लेकिन उसकी वैचारिक-जननी, उसकी अंतर्निहित शक्ति यानी संघ के विस्तार को लेकर आपराधिक लापरवाही बरती गयी. इसका दारोमदार किसका था, और इसका ठीकरा किसके सिर पर फोड़ा जाए, यह अवांतर का विषय है.

बहरहाल, मुझे ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि भाजपा की आंतरिक ऊर्जा ऊपरी प्रहसनों से नहीं चेत पाई है. हालांकि इसका ये आशय नहीं है कि आगामी विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करने जा रही है. अलबत्ता, ये कहना ज्यादा मुफीद जान पड़ता है कि भाजपा इन चुनावों में उम्मीद से कहीं अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. लेकिन चुनावी रण में बाजी मारने का का ये अर्थ भी नहीं कि पार्टी अपने राजरोग से मुक्त हो गयी. इस हक़ीक़त को पचाना कठिन है कि भाजपा जितने बार भी सत्ता में आई है उसके मूल में कांग्रेस के ज़िद्दी, एकाधिकारवादी और निरंकुश शासक के खिलाफ छत्तीसगढ़ के आम जन मानस की नापसंदगी तो थी ही, साथ ही एक प्रकट और अप्रकट तीसरी शक्ति का योगदान किसी से कमतर नहीं था.

यह दैवीय सहायता जहाँ विद्याचरण शुक्ल के रूप मे प्रकट रूप से भाजपा की सत्ता में वापसी का मार्ग प्रशस्त करती रही. वहीं पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का अदृश्य हाथ कथित रूप से भाजपा की मदद करता रहा. इस चुनाव में शायद पार्टी इस तिलिस्म को तोड़ना चाहती है, इसलिए तीसरे मोर्चे की किसी शक्ति से उसने अभी तक कोई चुनावी तालमेल नहीं किया है.

हाल ही में घोषित पार्टी के प्रत्याशियों की सूची हालांकि बुरी नहीं कही जा सकती, लेकिन कैडर के पहले से पस्त मनोबल को इस सूची ने फिर से झिन्झोड़ डाला. यह निराशा,नैरेटिव सेट करने में पार्टी की अब तक की विफलता का जीवंत स्टेटमेंट है. पर्सेप्सन गढ़ने और विपक्षी के पर्सेप्सन को ध्वस्त करने के लिए संचार माध्यमों की और जिस रणनीतिक समझ की दरकार थी, उसका मुज़ाहिरा पार्टी के किसी कर्ता-धर्ता ने नहीं किया.

दरअसल, जब तक आप जीत रहे होते हैं तब तक आपके रणनीतिक कौशल की पड़ताल प्रशस्तियों के समवेत गान में खो जाती है, लेकिन पराजित होते ही आपकी युद्ध-नीति की कलई खुलने लगती है. भाजपा का कैडर पिछले पांच सालों से इसी तरह के ‘नरेटिव-नेक्सस’ की गिरफ्त मे है. इस वैचारिक हताशा का परिणाम ये है कि युद्ध के मैदान में खड़े भाजपा की बड़े- बड़े नेता बर्ड सहज भाव से कहते हैं कि पार्टी आज की स्थिति में 35-40 सीटें जीत रही है, यानी सरकार बनने में कठिनाई हो सकती है. यह हताश विमर्श की एक बानगी हुई. दूसरा उदाहरण मप्र का है जहाँ कमलनाथ और उनकी टीम अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त हैं कि वे बिना अगर-मगर के सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं.

कुल- मिलाकर धीरे-धीरे भाजपा के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल हो रही है, लेकिन इसमे उसका अपना योगदान बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता, बल्कि सरकार की विफलताओं और अति की वजह से उसे एक लेवल प्लेइंग फील्ड अनायास ही हाथ लग गयी है. अगर पार्टी इस बार सरकार बनाने में कामयाब रही तो उसे अपनी आंतरिक संरचना और ऊर्जा को पुष्ट करने के लिए भागीरथी प्रयत्न करने होंगे.

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