महासंग्राम में मोदी बनाम कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रपों में है मुकाबला

रायपुर। 5 राज्धों में हुए विधानसभा चुनावों में दोनों तरफ से जो सियासी किलेबंदी हुई है। इस किलेबंदी ने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनावों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा घमासान होगा। जितना कि इन चुनावों में हुआ है।

इन चुनावों में मुख्य रूप से मुकाबला भरोसा और गारंटी के बीच हुआ। यह चुनाव पीएम मेदी, अमित शाह, जेपी नड्डा, राहुल गांधी प्रियंका गांधी वाड्रा, मल्लिकार्जुंन खरगे के ईर्द-गिर्द घूमता रहा। भाजपा ने तीन राज्यों में सीएम चेहरा की जगह मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा।

दोनों पार्टियों के स्टार प्रचारकों ने एक दूसरे को पानी-पी-पी कर कोसा। आरोप, लांछन लगाने में कोई गुरेज नहीं किया। जो दिल में आया बोल गए जो होगा देका जाएगा के तर्ज पर चुनाव लड़ा गया.

तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में मतदान हो चुका है वहीं राजस्थान में आज विधानसभा चुनावों का शोर थम चुका है। वादों का दौर बीत चुका है और अब दलों के अपने अपने दावे हैं।तीन दिसंबर को इन चुनावों के नतीजे आ जाएंगे और तय हो जाएगा कि अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कौन ज्यादा जोश और हौसले से मैदान में उतरेगा।

लेकिन इन विधानसभा चुनावों में दोनों तरफ से जो सियासी किलेबंदी हुई है उसने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनावों के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा घमासान होगा जितना कि इन चुनावों में हुआ है।

इन चुनावों में मुख्य रूप से मुकाबला भरोसा और गारंटी के नारों के बीच हुआ। जहां मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने परिवर्तन का नारा देकर चुनाव लड़ा तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा ने परिवर्तन की बात की। जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा ने निरंतरता को मुद्दा बनाया तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने निरंतरता के लिए वोट मांगे।

विधानसभा चुनावों के प्रचार में मूर्खों के सरदार से लेकर पनौती जैसे विशेषणों ने न सिर्फ भाषा की मर्यादा तो तार तार कर दिया बल्कि राजनीतिक विरोध किस हद तक शत्रुता में बदल चुका है यह भी बता दिया।

छत्तीसगढ़ में महादेव एप के कथित घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर लगने वाले आरोपों और मध्य प्रदेश में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे के करोड़ों रुपए के लेन देने के कथित वीडियो ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को भी प्रचार के केंद्र में ला दिया।

राजस्थान में कन्हैयालाल हत्याकांड के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने हिंदुत्व के ध्रुवीकरण का अपना चिर परिचित दांव चला तो चारो राज्यों में लगातार जातीय जनगणना और पिछड़ों दलितों आदिवासियों की हिस्सेदारी का मुद्दा उठाकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातीय ध्रुवीकरण का नया दांव आजमाने की पूरी कोशिश की है।

मध्य प्रदेश जहां 2018 में कांग्रेस ने थोड़े अंतर से जीत कर अपनी सरकार बनाई थी, लेकिन 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक विधायकों के साथ दलबदल के बाद भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में सरकार बनाने से यहां चुनाव का मुख्य मुद्दा भाजपा और शिवराज सरकार के 18 साल बनाम कमलनाथ और कांग्रेस के डेढ़ साल के शासन और दलबदल करके सरकार छीनने का बन गया।

अपने लंबे शासनकाल को लेकर पार्टी और जनता में संभावित सत्ता विरोधी रुझान को कमजोर करने के लिए शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना के जरिए पात्र महिलाओं के खाते में बारह सौ रुपए प्रतिमाह देने का मजबूत दांव चला। जिसकी काट के लिए कांग्रेस योजना की राशि बढ़ाकर 15 सौ रुपए करने की घोषणा की।पूरा चुनाव लाड़ली बहना योजना बनाम कांग्रेस की गारंटियों के बीच लड़ा गया। जहां कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में परिवर्तन का नारा दिया तो भाजपा ने निरंतरता को अपना मुद्दा बनाया।

अब जनता परिवर्तन के साथ गई या निरंतरता के इसे लेकर अलग अलग दावे हैं, लेकिन जहां कांग्रेस ने बिना घोषणा के कमलनाथ को अपना चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा वहीं भाजपा ने पहले शिवराज सिंह चौहान को पीछे रखा और यहां तक कि पहली तीन सूचियों में उनके टिकट की भी घोषणा नहीं हुई।

बाद में जब शिवराज खुद जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ने या न लड़ने पर लोगों से राय लेने लगे तो भाजपा ने चौथी सूची में उनकी सीट बुधनी से उन्हें अपना उम्मीदवार बना दिया। बावजूद इसके पूरे चुनाव में शिवराज तो अपनी सबसे बड़ी योजना लाड़ली बहना का जिक्र करके वोट मांगते रहे लेकिन भाजपा के अन्य सभी शीर्ष नेताओं ने ज्यादा वक्त कांग्रेस पर हमला करने में बिताया।

मध्य प्रदेश के उलट छत्तीसगढ़ में भाजपा ने बदलाव का नारा दिया तो कांग्रेस द्वारा निरंतरता के लिए भूपेश बघेल सरकार के द्वारा किए गए तमाम लोक कल्याणकारी कामों को गिनाते हुए अगली सरकार बनने पर कई अन्य लोक कल्याणकारी लोकलुभावन योजनाएं जारी करने की घोषणा की गई।

भाजपा ने बघेल सरकार और खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए लेकिन बघेल ने किसानों आदिवासियों और गरीबों के कल्याण के लिए उनकी सरकार द्वारा तमाम कामों का ब्यौरा देते हुए भाजपा के आरोपों को खारिज करते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि भाजपा किसानों आदिवासियों मजदूरों युवाओं के हितों के खिलाफ है।

यहां भाजपा हिंदुत्व को मुद्दा नहीं बना सकती क्योंकि बघेल सरकार ने राम वन गमन पथ, माता कौशल्या मंदिर से लेकर गोसेवा के कार्यक्रमों के जरिए हिंदुत्व की धार को नरम कर दिया।साथ ही भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया का नारा देकर खुद को छत्तीसगढ़िया पहचान का प्रतीक बनाने का दांव भी चला।

राजस्थान में भी इस बार लड़ाई बेहद दिलचस्प हो गई है। इस राज्य में 1993 से लगातार हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज है और इसीलिए हर चुनाव में आमतौर पर यह कहना आसान होता था कि चुनाव कौन जीत सकता है। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री अशोक गहलौत के लोक कल्याण के कार्यक्रमों और लोकलुभावना योजनाओं और घोषणाओं ने चुनाव को कड़े मुकाबले का बना दिया है।

भाजपा की तरफ से सबसे सघन प्रचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया तो कांग्रेस की तरफ से अशोक गहलोत पूरे चुनाव का सर्वमान्य चेहरा रहे। भाजपा ने यहां कथित लाल डायरी के जरिए भ्रष्टाचार, पर्चा लीक, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे तो उठाए ही, साथ ही हिंदुत्व का तड़का लगाकर ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश की है।

उधर हर सभा में जातीय जनगणना और जितनी जिसकी संख्या भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी का नारा देकर राहुल गांधी ने सामाजिक ध्रुवीकरण का दांव भी चला। कांग्रेस की तरफ से पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, महासचिव प्रियंका गांधी ने भी पूरा जोर लगाया।जहां खरगे के जरिए कांग्रेस ने दलितों आदिवासियों को साधने की कोशिश की है तो वहीं प्रियंका को आगे रखकर महिलाओं को आकर्षित करने की रणनीति भी रही है।

भाजपा की तरफ से मोदी के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी राजस्थान चुनाव प्रचार में सक्रिय रहे।योगी के जरिए भी भाजपा ने बुलडोजर और हिंदुत्व को भुनाने की पूरी कोशिश की है।

लेकिन इस बार सबसे दिलचस्प है कि किसी भी दल ने बॉलीवुड के सितारों को अपने चुनाव प्रचार में नहीं बुलाया। कहीं स्थानीय स्तर पर कुछ कलाकार भले ही किसी प्रत्याशी के चुनाव प्रचार के लिए आए हों लेकिन जिस तरह पिछले चुनावों में कई नामी सितारों और खेल हस्तियों को प्रचार मैदान में उतारा जाता रहा है, इस बार वैसी कोई गूंज या धूम नहीं दिखाई दी।

कांग्रेस भाजपा और अन्य सभी दलों ने पूरा चुनाव अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के दम और भरोसे पर लड़ा है जो राजनीति के लिए एक अच्छी बात है। अब देखना है कि 3 दिसंबर को किसके भरोसे और गारंटी पर सत्ता की चाबी मिलती है। इस वक्त तो सबी मौन सादे हुए है। कोई बी चुनाव परिणाम को लेकर कुछ भी कहने से बच रहा है तो इसके क्या राजनीतिक मायने निकालते है राजनीति के पैरोकार। तीन राज्यों में राजनीतिक गणितज्ञ भी मतगणना तक मुंह नहीं खोलने की कसम का रखी है।

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