रायपुर। छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के बस्तर (Bastar) में बड़े ही अनोखे अंदाज में दशहरे का पर्व मनाया जाता है। बस्तर के आदिवासियों की आस्था से जुड़े दशहरा के पर्व की तैयारियां जोरो पर हैं। बस्तर के दशहरे की खास बात ये है कि 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध इस दशहरे का संबंध राम-रावण संग्राम (Ram-Ravan Sangram) से नहीं है।

दरअसल, यह आदिवासियों की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी और मावली माता से जुड़ा पर्व है। माना जाता है कि आदिवासी इस पर्व को बीते 600 साल से इसी रूप में मनाते आ रहे हैं। इसमें 600 से ज्यादा देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है। इसीलिए इसे देवी दशहरा भी कहा जाता है।

देवी मां दंतेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ कर शहर में परिक्रमा लगाने की परंपरा

रथ परिक्रमा के लिए रथ बनाने की प्रक्रिया 15 दिन पहले शुरू हो गई थी। विजयदशमी के दिन बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ कर शहर में परिक्रमा लगाई जाती है। लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासियों की टीम जुटती है।

महिषासुर और बाणासुर जैसे असुर यहीं हुए

पौराणिक मान्यता है कि आदिकाल में यहां असुरों का आधिपत्य था। महिषासुर और बाणासुर जैसे असुर यहीं हुए। बाणासुर के नाम पर ही बारसूर है। कहते हैं मां दुर्गा ने बड़ेडोंगर की पहाड़ी पर महिषासुर का संहार किया था। आदिवासियों को राक्षसी हिडिंबा का वंशज भी माना जाता है। यही वजह है कि ज्यादातर आदिवासी अपना नाम हिड़मा-हिड़मो रखते हैं।

रथ के आगे चलते हैं धनुकांडिया

पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान राम ने अपने वनवास के 13 वर्ष दंडकारण्य में व्यतीत किए थे। इस दंडकारण्य की साम्राज्ञी थी रावण की बहन शूर्पणखा। यहां रहने वाले वनवासियों और साधु-संतों को राक्षस परेशान किया करते थे, इसलिए भगवान राम ने राक्षसों का वध कर वनवासियों को भयमुक्त किया था। उक्त घटना को याद करते हुए आज भी बस्तर दशहरा के समय ग्रामीण धनुकांडिया (राम रूपी वेश) बन रथ के आगे चलते हैं, परंतु इस विधान के दौरान कहीं भी रावण वध या दहन जैसी रस्म नहीं होती।

बड़ेडोंगर में महिषासुर वध

बस्तर के जनमानस और लोकगीतों में यह कथा प्रचलित है कि मां दुर्गा से पहले महिषासुर से युद्ध करने के लिए जो देवियां गईं, उन्हें वह अपने सींगों में फंसाकर छिटक देता था। अंतत: दुर्गा आईं और बड़ेडोंगर की पहाड़ी पर महिषासुर का वध कर दिया। आज भी इस पहाड़ी पर देवी की सवारी सिंह के पंजे के निशान हैं।

इधर छिटकी गईं देवियां जहां-जहां गिरीं, वहां माता गुड़ी बन गईं। वह देवियां बस्तर में नेतानारीन, लोहांडीगुडीन, नगरनारीन, बंजारीन, तेलीनसत्ती, बास्तानारीन आदि नामों से पूजी जाती हैं। लोकगीतों में तीन सौ से अधिक देवियों का उल्लेख मिलता है। इन देवियों का सुमिरन बस्तर दशहरा के दौरान पारंपरिक धनकुल वाद्य के साथ गाए जाने वाले लोकगीतों में होता है। इन गीतों में कहीं भी राम-रावण का प्रसंग नहीं आता।

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