उचित शर्मा

न जाने किस ख्याल में मशहूर शायर इकबाल ने शायरी कही थी..जिसका जिक्र हम आज के दौर में

कर रहे हैं…..

एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़, न कोई बंदा रहा, न कोई बंदा नवाज़…

अब जरा 2014 के दौर में लौटे तो आप हमारी बातों को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पाएंगे, जिस कैडर

बेस पार्टी ने एक चाय बेचने वाले को प्रधानमंत्री के पद पर बैठाया, उसी पार्टी की रहनुमाई करने वाले लोग

अब पार्टी नेतृत्व से आदिवासी चेहरे को चलता करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। जी हां प्रदेश भाजपा

कार्यालय कुशाभाऊ ठाकरे परिसर के अंदरखाने से जो आवाज बाहर आ रही है उसकी झनक कुछ ऐसी

जान पड़ती है।

 

बातों बातों में जब बात चली है तो जान लें प्रदेश भाजपा संगठन के चुनाव में 15 साल से सत्ता के करीब रहे

सियासतदार डॉ रमन सिंह को (प्रदेश अध्यक्ष) पार्टी का बंदा नवाज़ बनाने पर तुले हैं।

 

 

बात जब छत्तीसगढ़ की बहुसंख्यक आदिवासी समाज के नेतृत्व की हो रही हो तब ये सवाल भाजपा के

लिए सोचने वाला हो सकता है। सही मायने में कहें तो ये ऐसी कोशिश मोदी के सपनों वाली भाजपा का

तो नहीं हो सकता, सवाल वही है आखिर वो कौन हैं जो अपनी सधी चालों से सबको मात देने को तैयार

बैठा है।

 

आइए पुराने सवाल पर वापस चलें

आखिर अब तक कोई भी आदिवासी चेहरा लंबे समय तक पार्टी अध्यक्ष पद पर क्यों नहीं टिक पाया। जब

सवाल उठ ही गया है तो उनका जिक्र किया जाना भी जरूरी है। सबसे पहला नाम है तात्कालीन पटवा सरकार

के दबंग आदिवासी मंत्री व सरगुजा में भाजपा के चेहरे की रूप में अपनी पहचान बनाने वाले शिवप्रताप सिंह का,

फिर बारी आती है नंदकुमार साय की जो आज हासिए पर डाल दिए गए हैं। कुछ नाम और भी हैं.विष्णुदेव साय,

रामसेवक पैकरा और अब विक्रमदेव उसेंडी की पारी है।

 

ये भी नहीं कहा जा सकता कि भाजपा में आदिवासी समाज को नेतृत्व से बाहर रखा जा रहा है पर ये भी सच है

कि भाजपा में दबंग चेहरों की भी कमी नहीं जो अपने.अपने समाज और वर्ग का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। पर

उनकी जुबान पर पिछले 15 साल की सियासतदारी का ताल जड़ा हुआ है।

 

हैरानी वाली बात तो ये है कि जिस पार्टी के प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष ने मिलकर कश्मीर को अखंड़ भारत

का हिस्सा बना कर देश का भूगोल बदल डाला,रामलाल को अयोध्या वापस दिला दी, उसी पार्टी के नेता इस

सियासी सवाल का जवाब नहीं ढूंढ सके।

 

हमारा काम राजनीति करना नहीं है और ना ही किसी की तरफदारी या विरोध। मगर जो सवाल और गुस्सा पार्टी

कार्यकर्ताओं की जुबान से बाहर आ रहा है उसका हल तो भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को ही ढूंढना होगा। पार्टी की

बागडोर किसे दें ये उनका अंदरूनी मामला है। और आगे होने वाले निकाय चुनाव में भाजपा का क्या होगा ये भी

हम नहीं बता सकते। आखिर में.. जो बात हमने इकबाल की शायरी से शुरू की थी उसे खत्म रामायण की इस

चौपाई से करते हैं……..

 

हो ही वही जो रामरचि राखा…

 

Chhattisgarh से जुड़ी Hindi News के अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें Facebook पर Like करें, Twitter पर Follow करें और Youtube  पर हमें subscribe करें। एक ही क्लिक में पढ़ें  The Rural Press की सारी खबरें।