शिव स्वरुप में पूजा जाता है सिद्ध पीठ शिव स्वरुप को

TRP DESK खैरागढ रायपुर : तत्कालीन ख़ैरागढ़ रियासत और श्री रूख्खड़ स्वामी बाबा का इतिहास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है या यूं कहें कि आमनेर, पिपरिया और मुस्का से घिरे तीनों नदियों के बीच बसे नगर का उदय ही रूख्खड़ बाबा से है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। शासक टिकैतराय के शासन काल में ही रूख्खड़ बाबा अमरकंटक की ओर से चलकर ख़ैरागढ़ आए तब शासकों की राजधानी खोलवा और बोदागढ़ रही और तीनों नदियों से घिरा यह खैर (कत्थे) का जंगल भी उसी रियासत का हिस्सा था।

बाबा निज स्थान पर पहुंचें, तो टिकैटराय बाबा की ख्याति जानकर उनके पास आए। कुछ समय बाद बाबा ने निज स्थान पर विभूति रूप में सिद्धपीठ स्थापित करते हुए, आशीर्वाद दिया, उसी पीठ की शिव स्वरूप में पूजा जाता है। सम्भवतः पुरे भारत अपितु विश्व में विभूति ( राख ) से बना एकमात्र सिद्ध पीठ जिसकी पूजा शिव स्वरूप में होती है। श्रावण व महाशिवरात्रि पर श्री रुक्खड़ स्वामी मंदिर में हर साल विशेष आयोजन होता है। जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।

“ईश्वर चिंतन व साधना में व्यतीत हुआ बाबा का समय”

भोंसला शासनकाल में ठग पिण्डारियों और लुटेरों का उत्पाद छत्तीसगढ़ में बहुत बढ़ गया था। एक बार उनका बहुत बड़ा दल खैरागढ़ की ओर बढ़ता चला आ रहा था। राजा और नगरवासी लुटेरों के आक्रमण से बहुत ही चिंतित और भयभीत थे। राजा साहब पिण्डरियों का मुकाबला करने की तैयारी कर रहे थे। तभी स्वामी जी ने उनसे कहलवाया कि चिंता की कोई बात नहीं है। पिण्डारी कुछ बिगाड़ नहीं सकेंगे। पता नहीं स्वामी जी ने ऐसा क्या किया कि पिण्डारियों के दल ने अपनी दिशा बदल दी और भाग खड़े हुए।

सिद्ध महात्माओं के रहस्यों को हम जैसे सामान्य लोग क्या कभी समझ सकते है? चमत्कार प्रदर्शन स्वामीजी का स्वभाव नहीं था। ऐसा होता तो राजा साहब के पुत्र की मृत्यु के मुख से बचाकर भरपूर यश और धन बटोर सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। प्रसंगवश उन्हें कोई चमत्कार करना ही पड़ा तो वह उनकी विवशता थी। वे तो अपना सारा समय ईश्वर चिंतन और साधना में व्यतीत करते थे। समय मिल जाता था तो वार्तालाप के रूप में ज्ञानोपदेश भी करते थे। अधिक भीड़-भाड़ से बचते थे ताकि साधना में व्यवधान न हो।

“जब तक मेरी मढ़ी,तब तक तेरी गढ़ी”

स्वामी जी ने राजा साहब को वरदान दिया था- जब तक मेरी मढ़ी, तब तक तेरी गढ़ी। मतलब जब तक यह पीठ रहेगा। तब तक ख़ैरागढ़ रहेगा। उनके इस वरदान ने खैरागढ़ नरेश टिकैत राय को हर संकट पर विजय दिलवायी। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लाल प्रदुम्न सिंह ने लिखा है-‘सन 1816 में खैरागढ़ में भयंकर अकाल पड़ा। अकाल के कारण उदार राजा टिकैत राय किसानों से लगान वसूल न कर सके। राजकोश का धन भी अकाल पीड़ितों की सहायता में खर्च हो गया। अतः वे नागपुर के भोसले राजा रघुजी द्वितीय को वार्षिक कर न पटा सके। नागपुर के भोसले राजा को इससे कोई मतलब न था कि छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा है या और कोई संकट टूट पड़ा है। उसे तो छत्तीसगढ़ से होने वाली आमदनी से मतलब था।

खैरागढ़ नरेश टिकैत राय द्वारा असमर्थता बताये जाने पर रघुजी ने क्रोध होकर खैरागढ़ पर चढाई करने के लिये एक बड़ी सेना भेज दी। इतनी बड़ी सेना का सामना करना खैरागढ़ नरेश के लिए संभव नहीं था। फिर भी उन्होंने अपनी ओर से युद्ध की तैयारी कर ली। ऐसे संकट के समय परामर्श करने राजा साहब स्वामी जी के पास अवश्य जाते थे। स्वामीजी ने सिर्फ इतना ही कहा- सब ठीक हो जायेगा। और हुआ भी वही। नागपुर से सेना खैरागढ़ के लिए रवाना हुई कि मार्ग में उसे सूचना मिली कि रघु जी द्वितीय का देहावसान हो गया और सेना की आवश्यकता नागपुर मे है। सेना मार्ग से ही वापस नागपुर लौट गई। खैरागढ़ नरेश एन वक्त पर रघुजी द्वितीय की सेना की वापसी को श्री रूख्खड़ स्वामी का चमत्कार ही समझते थे। उनके प्रति राजा साहब की श्रद्धा और विश्वास और दृढ़ हो गया।

“बाबा की भक्ति से अवतरित हुई माँ नर्मदा”

बाबा मां नर्मदा के अनन्य भक्त थे, स्नानादि कर्म के लिए वे पैदल ही तप से मां नर्मदा तक पहुंच जाते थे। एक समय रुख्खड़ स्वामी के तप से प्रसन्न हो माँ नर्मदा ने स्वामी से कुछ मांगने के लिए कहा। माँ की आज्ञा से श्री रूख्खड़ स्वामी महाराज ने अपने निजी स्थान में बसने का वर मांगा। मां नर्मदा, बाबा को आशीर्वाद देकर उनके पीछे चल दी। बहुत देर आगे चलने पर बाबा खैरागढ़ की ओर आगे बढ चुके थे।

गाय-भैंस चरा रहे गड़रियों से माँ ने खैरागढ़ का मार्ग पूछा यह सुनते ही गड़रिए ने मडई के पास ग्राम चकनार के खैरा को ही खैरागढ़ बता दिया। उक्त स्थान पर माँ प्रकट हुई, तब से वहाँ नर्मदा कुंड का अवतरण हुआ। जीवनकाल तक पढ़ स्वामी कुड में ही स्नान करने खैरागढ़ से ग्राम चकनार स्थित नर्मदा खैरा तक जाने थे।

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“अनवरत जल रही है धुनी”

वर्तमान पीठ के ठीक सामने रूख्खड़ महाराज ने तप बल से यह अग्नि प्रज्वलित की थी। तब से लेकर अब तक बाबा द्वारा प्रज्वलित अग्रि आज भी उसी तेज से जल रही है। मंदिर के सेवको द्वारा उक्त यज्ञ अग्रि में लकड़ियां मात्र डाली जाती है। उक्त यज्ञ कुंड की गहराई का सही अनुमान अभी तक नहीं लगाया जा सका है। ऐसी मान्यता है कि लगभग एक सामान्य मनुष्य की ऊंचाई की गहराई यज्ञ स्थल की है। उसी लंबाई का त्रिशूल यज्ञ कुंड में स्थापित किया गया है।

कुंड की राख कभी भी बाहर नहीं निकाली जाती भभूति के रूप में दीन दुखियों और बाबा के भक्तों में इसे प्रसादी के रूप में वितरित किया जाता है। धुनि का परकोटा सामान्य से अधिक तापमान के समय भी आश्चर्यजनक रूप से ठंडा रहता है, जो आज भी बाबा की प्रत्यक्षता का प्रमाण देती है। ऐसी मान्यता है कि धुनी के भीतर ही श्री रूख्खड़ स्वामी बाबा ने समाधि ली थी।

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