नई दिल्ली: खुशियों का त्योहार बैसाखी 14 अप्रैल यानि आज है। यह पर्व पंजाब, हरियाणा समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन लोग रबी की फसल तैयार होने पर भगवान को धन्यवाद देते हैं। इस मौके पर लोग अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और करीबियों के साथ जश्न मनाते हैं और मिठाइयां बांट कर बैसाखी की शुभकामनाएं देते हैं। बैसाखी के दिन बंगाल में पोइला बोइसाख, बिहार में सत्तूआन, तमिलनाडु में पुथांडु, केरल में विशु और असम में बिहू मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, रबी फसल तैयार होने के बाद सबसे पहले अग्नि देव को अर्पित किया जाता है। इसके बाद तैयार अन्न को सामान्य लोग ग्रहण करते हैं। आइए, इस पर्व के बारे में सबकुछ जानते हैं-

बैसाखी का महत्व

सनातन शास्त्रों की मानें तो बैसाखी के दिन ही भगवान ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। अतः बैसाखी को सृष्टि का उद्गम हुआ है। आसान शब्दों में कहें तो बैसाखी के दिन से मानव जीवन की शुरुआत हुई है। वहीं, त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम राम बैसाखी के दिन अयोध्या के राजा बने थे। उस समय अयोध्या में राम राज की स्थापना की गई थी। वर्तमान समय में भी राम राज प्रासंगिक है। महात्मा गांधी ने भी आजादी के पश्चात देश में राम राज की कल्पना की थी। जबकि, प्राचीन भारत में बैसाखी के दिन महाराजा विक्रमादित्य ने विक्रमी संवत की शुरुआत की थी। अतः बैसाखी पर्व का विशेष महत्व है।

कैसे मनाते हैं बैसाखी ?

इस दिन सिख समुदाय के लोग स्नान-ध्यान करने के बाद सबसे पहले अनाज की पूजा करते हैं। इसके बाद भगवान को जीवन में प्राप्त सभी चीजों के लिए धन्यवाद देते हैं। इसके पश्चात तैयार फसल को काटा जाता है। वहीं, स्वयंसेवकों द्वारा गुरुद्वारों को भव्य तरीके से सजाया जाता है। गुरुद्वारों पर कीर्तन-भजन संग गुरुवाणी का आयोजन किया जाता है। बड़ी संख्या में संख्या में लोग स्नान-ध्यान कर नवीन पोशाक पहनते हैं। बड़े वृद्ध गुरुद्वारे में जाकर मत्था टेककर बाबा से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। कई जगहों पर मेले का आयोजन किया जाता है। बच्चे और वृद्ध सभी मेला घूमने जाते हैं। लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ गिद्दा डांस कर खुशियां मनाते हैं।

सत्यनारायण भगवान की जाती है पूजा
मेष संक्रांति पर गंगा स्नान, जप-तप दान आदि का विशेष महत्व है। साथ ही इस दिन सत्यनारायण भगवान की पूजा भी की जाती है और कथा भी सुनी जाती है, जिसमें सत्तू का भोग लगाया जाता है और घर-घर प्रसाद के रूप में वितरण किया जाता है। इस दिन कई लोग सत्तू का शर्बत बनाकर दान करते हैं और पीते भी हैं।

मेष संक्रांति पर खत्म खरमास
सूर्य के मेष राशि में आने पर खरमास भी खत्म हो जाता है और शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त भी शुरू हो जाते हैं। बैसाखी पर गंगा स्नान करने के बाद नई फसल कटने की खुशी में सत्तू और आम का टिकोला खाया जाता है। इस दिन घरों में खाना नहीं पकाया जाता बल्कि सिर्फ सत्तू का ही सेवन करते हैं। इस दिन सत्तू के साथ मिट्टी के घड़े, तिल, जल, जूते आदि चीजों का भी दान किया जाता है।

ककोलत में स्नान का बड़ा महत्व
बिहार में इस शुभ दिन पर ककोलत जलप्रपात में स्नान करने का विशेष महत्व है। मान्यता है कि मेष संक्रांति पर इस जल में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलती है और गिरगिट व सर्प योनी में जन्म नहीं लेना पड़ता। यहां पर इस उपलक्ष्य में मेले का भी आयोजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत काल में पांडवों के आज्ञातवास के दौरान पांडव काम्यक वन आज के ककोलत जगह पर आए थे, तब उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण भी थे। दुर्वासा ऋषि को शिष्यों के साथ कुंति ने यहीं पर सूर्यदेव के दिए पात्र में भोजन बनाकर खिलाया था। साथ ही यहीं पर मां मदलसा ने अपने पति को कुष्ठ रोग से मुक्ति दिलाई थी।

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