अंग्रेजों के जमाने से चल रही यह संस्था चैरिटी का नहीं करती प्रचार
अंग्रेजों के जमाने से चल रही यह संस्था चैरिटी का नहीं करती प्रचार

रायपुर। फ्री मैसन्स हॉल (FREE MASONS HALL), रायपुर में स्थित इस हॉल का नाम आपने शायद ही सुना हो, मगर आपको बता दें कि इस हॉल का भवन 100 साल से भी पुराना है। आपने मैसन्स हॉल तो नहीं मगर जादू बंगले का नाम तो सुना ही होगा, जो राजधानी रायपुर में राजभवन के पास ही एक मजार के पीछे स्थित है।
फ्री मैसन्स हॉल को वर्ष 1911 में बनाया गया था। दरअसल इसी हॉल में फ्री मैसानिक लॉज नामक संस्था का गठन 1911 में अंग्रेजों के द्वारा किया गया था। मूलतः यह संस्था चैरिटी का काम करती है। यहां हर वर्ष 24 जून को “ब्रदर हुड डे” के मौके पर संस्था के सदस्य और पदाधिकारी वार्षिक बैठक में शामिल होते हैं। इसी मौके पर TRP की टीम ने इस संस्था के बारे में ऐसी अनेक जानकारियां हासिल की जिसके बारे में सुनकर आप भी चकित रह जायेंगे।

300 साल पहले रखी गई संस्था की नींव

फ्री मैसानिक लॉज की स्थापना 24 जून 1717 इंग्लैंड की राजधानी लंदन की गई, जिसे नाम दिया गया “प्रीमियर ग्रैंड लॉज ऑफ इंग्लैंड।” इसी के अधीन विश्व के उन देशों में मैसानिक लॉज स्थापित किये गए, जहां-जहां अंग्रेजों ने सत्ता स्थापित की। इन्हीं में शामिल है राजधानी रायपुर का फ्री मैसानिक हॉल, जहां संचालित संस्था को लॉज छत्तीसगढ़-85 नाम दिया गया। छत्तीसगढ़ में रायपुर के अलावा बिलासपुर और भिलाई में भी ऐसी ही संस्थाएं संचालित हैं।

मुंबई में है मुख्यालय

फ्री मैसानिक लॉज की देश भर में 200 से भी ज्यादा शाखाएं संचालित हैं और इसका मुख्यालय मुंबई में है जिसे ग्रैंड लॉज कहा जाता है। यहां से सभी संस्थाओं की मॉनिटरिंग होती है, हालांकि लॉज के देश भर में 4 जोन ईस्ट, वेस्ट, नार्थ और साउथ हैं और छत्तीसगढ़ की संस्थाएं वेस्टर्न जोन में आती हैं।

इन्हें मिलती है यहां की सदस्यता

फ्री मैसानिक लॉज नाम की इस संस्था में अध्यक्ष को मास्टर कहा जाता है और वर्तमान में डॉ अभिषेक मेहरा यहां के मास्टर हैं। प्रति वर्ष यहां के लिए मास्टर चुने जाते हैं। संस्था के पूर्व मास्टर कमल भंडारी बताते हैं कि यहां किसी भी जाति-धर्म के लोग सदस्य बन सकते हैं, बशर्ते ईश्वर पर उसकी आस्था हो। सदस्य बनाने से पहले संबंधितों से इस बात की तस्दीक कर ली जाती है कि वह नास्तिक है या आस्तिक।

अंग्रेज बना करते थे यहां मास्टर

1911 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित इस संस्था में पूर्व में अंग्रेज ही मास्टर बना करते थे। हालांकि आजादी के बाद से यहां की परंपरा बदली और अब भारतीय यानी संस्था से जुड़े लोग ही मास्टर बनने लगे।

विधानसभा की तरह चलता है सदन

इस बंगले में ऊपर और नीचे दो बड़े हॉल है। नीचे हॉल पर मैसानिक लॉज के 1911 से लेकर अब तक के पदाधिकारियों की सूची और उनकी तस्वीरें आपको नजर आ जाएंगी। अब तक जितने भी मास्टर बने उन सभी की तस्वीरें दीवारों पर लगी हुई हैं।

इस भवन के ऊपर मीटिंग हॉल है, जिसे टेम्पल कहा जाता है। यहां टेम्पल में प्रवेश से लेकर बैठक आयोजित करने तक के लिए नियम कायदे और परम्पराएं हैं। सदस्य और अध्यक्ष सफेद शर्ट और काले पेंट पहने होते हैं, इसके अलावा पद के अनुरूप इन्हें ड्रेस पहनना होता है। यहां पर पुराने जमाने में लगाए गए चेयर आज भी विद्यमान है। जहां पर मास्टर बैठते हैं। यहां विधानसभा के जैसे ही मीटिंग होती है। मास्टर के लिए अलग से चेंबर हैं। वहीं बाकी मीटिंग में शामिल होने वालों के लिए अलग से चेयर लगे हुए हैं। पुराने जमाने में भी जिस तरह मीटिंग का दौर चलता था, वैसा ही आज भी चलता है। यहां कोर्ट के जैसा ही पूरा डेकोरम मेंटेंन किया जाता है।

पूर्व में मीटिंग हॉल में संस्था से जुड़े लोगों के अलावा दूसरों का प्रवेश वर्जित था। कालांतर में सिमित संख्या में यहां बाहरी लोगों को प्रवेश दिया जाने लगा।

स्वामी विवेकानंद का भी हुआ है आगमन

युवाओं के प्रेरणा श्रोत स्वामी विवेकानंद भी फ्री मैसोनिक लॉज की पश्चिम बंगाल स्थित शाखा के मेंबर थे। रायपुर में कुछ वर्षों तक रहने के दौरान स्वामी विवेकानंद यहां के मेसन हॉल में भी आया करते थे। यह जानकारी देते हुए संस्था के सदस्य गर्व का अनुभव करते हैं।

चैरिटी का नहीं करते खुलासा

यहां पर चैरिटी से संबंधित माह में दो मीटिंग होती है। हालांकि चैरिटी संबंधी जानकारी गोपनीय रखी जाती है और सदस्य इसका कभी भी प्रचार-प्रसार नहीं करते। संस्था के लोग हर वर्ष स्कूल और अन्य संस्थाओं में जरुरत के मुताबिक सामग्रियां दान में देते हैं, महीने में होने वाली मीटिंग में यह तय किया जाता है कि किसे सहयोग करना है। अगर कोई बड़ी चैरिटी करनी हो और फंड कम हो तो मुंबई स्थित ग्रैंड लॉज से भी सहयोग लिया जाता है।

अंग्रेजों के ज़माने में स्थापित मैसानिक लॉज को लोग मिशनरी से जुड़ी संस्था मान लेते हैं लेकिन मिशनरी से इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। 100 साल से भी पुराने इस भवन और संस्था को राजधानी रायपुर की धरोहर माना जा सकता है। वर्तमान पीढ़ी को इसके इतिहास की जानकारी देने के साथ ही ऐसी संस्था के बारे में भी बताया जाना चाहिए जो बिना किसी शोर-शराबे और प्रचार-प्रसार के जरूरतमंदों की सेवा में लगी हुई है।

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