शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र की गद्दी से उतारकर राज्य के नये नाथ बने एकनाथ का साथ देने के लिए भाजपा ने वादा किया है और एकनाथ सरकार में शामिल भी हो गयी है लेकिन इस दिलदारी के पीछे भाजपा का क्या स्वार्थ हो सकता है , यह प्रश्न सभी के दिमाग में पहले दिन से कौंध रहा है। राजनीति में कोई भी कार्य निस्वार्थ भाव से नहीं किया जाता है फिर चाहे वह कार्य किसी नेता द्वारा किया गया हो या किसी पार्टी ने किया हो।

आज से लगभग ढाई साल पहले 2019 में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने एन सी पी और कांग्रेस की सहायता से महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की सरकार बनाई। उस समय सभी के लिए यह आश्चर्य का विषय था कि विपरीत विचारधारा होने के बावजूद शिवसेना ने एन सी पी और कांग्रेस का साथ कैसे स्वीकार किया लेकिन उद्धव जी की महत्वाकांक्षा ने इसे संभव कर दिखाया।

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बहरहाल , यह बेमेल सरकार किसी तरह ढाई साल तक चली लेकिन सरकार में शामिल सच्चे शिवसैनिकों को यह रास नहीं आ रही थी। शिवसेना के मंत्री और विधायक मुख्यमंत्री के आचार – व्यवहार से भी खिन्न हो गए थे। उनकी शिकायत थी कि मुख्यमंत्री उनसे न मिलते थे और न उनकी सुनते थे। इन मंत्रियों और विधायकों के अंदर उद्धव जी के विरुद्ध गुस्सा बढ़ता जा रहा था। उनके इस गुस्से की आग में भाजपा घी डालने का काम सतत कर रही थी। फिर , एक दिन भाजपा ने उनको बगावत का रास्ता चुनने की सलाह दी और मदद का आश्वासन भी दिया। बस , फिर क्या था , अंदर के गुस्से की चिंगारी विस्फोटक बन गयी। उसके बाद जो कुछ हुआ वह सबके सामने ही है।

उद्धव ठाकरे को जब शिवसेना के विधायकों के बगावत की जानकारी मिली तो वे चुपचाप तमाशा देखते रहे। उनकी ओर से कोई आक्रामक कदम नहीं उठाया गया। वे बगावत करने वालों को पार्टी से निलंबित या निष्कासित कर सकते थे लेकिन वे पूर्ण आश्वस्त थे कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। इसी का परिणाम रहा कि एक – एक कर उनके अधिकांश तोते उड़ गए और उन्हें मुख्यमंत्री निवास ‘ वर्षा ‘ छोड़ना पड़ा। वर्षा से मातोश्री जाने के दिन ही यह स्पष्ट हो गया था कि उद्धव बाज़ी हार गए हैं और उनका मनोबल ध्वस्त हो गया है। यही वज़ह थी कि उन्हें सोशल मीडिया पर अपने त्यागपत्र की घोषणा करनी पड़ी , प्रेस कॉन्फ्रेंस भी करने का साहस नहीं जुटा पाए।

अब , महाराष्ट्र के पूरे घटनाक्रम में स्पष्ट हो गया था कि इसमें भाजपा की केंद्रीय भूमिका रही। बाग़ी विधायकों का सूरत जाना फिर वहां से गुवाहाटी कूच करना , सुरक्षा के सारे प्रबंध , हवाई यात्रा , होटल की सुविधा सब कुछ भाजपा की ओर से ही था और यह सब कुछ निस्वार्थ नहीं था।

भाजपा को उद्धव ठाकरे से प्रतिशोध लेना था , उसने बख़ूबी लिया। अब इस पार्टी ने उद्धव सरकार गिराने के बाद भी मुख्यमंत्री पद खुद ने नहीं लिया , चाहती तो ले सकती थी क्योंकि भाजपा के पास 120 विधायकों का समर्थन था जबकि एकनाथ शिंदे के पास इसके आधे भी नहीं थे फिर भी सत्ता से दूर रहने का फैसला किया। हालांकि बाद में केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर देवेंद्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली।

अब सवाल उठता है कि भाजपा ने इतना बड़ा त्याग क्यों किया ? क्या उन्हें सोनिया गांधी के त्याग की याद आ गयी जब उन्होंने प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी डॉ मनमोहन सिंह की ओर सरका दी थी। सोनिया जी ने तो ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वे जानती थी कि मनमोहन सिंह उनसे बेहतर प्रशासक हैं लेकिन महाराष्ट्र में तो शिंदे से बेहतर फडणवीस हैं। फिर कुर्सी से दूर होने का क्या कारण ?

वास्तव में , भाजपा के नेताओं ने दूरदृष्टि का प्रयोग किया है। ढाई साल की सरकार चला कर पार्टी एंटी इंकम्बेंसी की चपेट में नहीं आना चाहती थी। उसे पूरे पांच साल का राज चाहिए था। यह भी तय है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा अकेले ही मैदान में उतरेगी , शिंदे भाऊ को कहेगी कि आप अलग लड़ो। ऐसा कर वह पूर्ण बहुमत हासिल करने की कोशिश करेगी ताकि राज्य पर उसका एकछत्र राज हो।

अब फिर सवाल उठेगा कि एक बार मना करने के बाद देवेंद्र फडणवीस को फिर क्यों उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने को विवश किया गया ? ऐसा लगता है कि इसके पीछे भाजपा की यह सोच रही होगी कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपनी गोटियां फिट करना तभी आसान होगा जब सत्ता में उसकी भागेदारी रहेगी और सत्ता में रहकर ही चुनाव के लिए फण्ड एकत्र करना सहज होगा।

इसलिए , भाजपा ने महाराष्ट्र में जो त्याग दिखाया है वह फौरी तौर पर तो त्याग ही दिखेगा लेकिन इस त्याग के पीछे बहुत बड़ा स्वार्थ है जो आज स्पष्ट परिलक्षित नहीं होगा। इसके लिए ढाई साल प्रतीक्षा करनी होगी। यह त्याग चतुर – चालाक , राजनीति पटु , दूरदर्शी भाजपा की महज़ एक चाल है।

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